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भला तू देखता क्यों है महज इस आदमी का रंग
दिखाई क्यों न देता है धवल जो दोस्ती का रंग /1
सुना है खूब भाता है तुझे तो रंग भड़कीला
मगर जादा बिखेरे है छटा सुन सादगी का रंग/2
किसी को जाम भाता है किसी को शबनमी बँूदें
किसे मालूम है कैसा भला इस तिश्नगी का रंग/3
महज इक आदमी है तू न ही हिंदू न ही मुस्लिम
करे बदरंग क्यों बतला तू बँटकर जिंदगी का रंग/4
अगर बँटना ही है तुझको तो बँट तू रोशनी जैसा
कि बँट रंगीन हो जाता हमेशा रोशनी का रंग/5
अभी तक मीर गालिब थे चले आए हैं साहिर भी
‘मुसाफिर’ खूब महफिल में जमेगा शायरी का रंग/6
मौलिक व अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’
Comment
आ0 भाई राम आसरे जी, उपस्थिति और प्रशंसा के लिए आभार
आ0 राहिला जी उत्साहजनक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक धन्यवाद।उपस्थिति बनाए रखें ।
आ0 भाई रवि शुक्ला जी गजल की प्रशंसा के लिए आभार । अपको गजल पसंद आई लेखन सफल हुआ ।
आ0 भाई मिथिलेश जी आपकी विस्तृत प्रतिक्रिया से उत्साह दुगुना हुआ हार्दिक धन्यवाद । स्नेह बनाए रखें ।
आ0 भाई मदन मोहन जी हार्दिक आभार ।
very nice
congratulation
आदरणीय लक्ष्मण धामी सर जी, बहुत ही शनदार ग़ज़ल हुई है. शेर दर शेर दाद कुबूल करें दो शेर बहुत ही ज्यादा पंसद आए
किसी को जाम भाता है किसी को शबनमी बँूदें
किसे मालूम है कैसा भला इस तिश्नगी का रंग ..............बाकई लाज़वाब शेरऔर
अगर बँटना ही है तुझको तो बँट तू रोशनी जैसा
कि बँट रंगीन हो जाता हमेशा रोशनी का रंग ....... बहुत ही बढि़या प्रतीक लिया है आपने । बधाई स्वीकार करें ।
आदरणीय लक्ष्मण धामी सर जी, बहुत ही शनदार ग़ज़ल हुई है. शेर दर शेर दाद हाज़िर है-
भला तू देखता क्यों है महज इस आदमी का रंग
दिखाई क्यों न देता है धवल जो दोस्ती का रंग /1................... शानदार मतला
सुना है खूब भाता है तुझे तो रंग भड़कीला
मगर जादा बिखेरे है छटा सुन सादगी का रंग/2.............. वाह वाह
किसी को जाम भाता है किसी को शबनमी बँूदें
किसे मालूम है कैसा भला इस तिश्नगी का रंग/3...............लाज़वाब शेर
महज इक आदमी है तू न ही हिंदू न ही मुस्लिम
करे बदरंग क्यों बतला तू बँटकर जिंदगी का रंग/4............. बहुत खूब
अगर बँटना ही है तुझको तो बँट तू रोशनी जैसा
कि बँट रंगीन हो जाता हमेशा रोशनी का रंग/5.............अद्भुत शेर.... आपने भौतिकी सिद्धांत को प्रतीक रूप में अद्भुत प्रयोग किया है. इस शानदार ग़ज़ल पर दाद ओ मुबारकबाद कुबूल फरमाएं.
भला तू देखता क्यों है महज इस आदमी का रंग
दिखाई क्यों न देता है धवल जो दोस्ती का रंग /1
सुना है खूब भाता है तुझे तो रंग भड़कीला
मगर जादा बिखेरे है छटा सुन सादगी का रंग/2
किसी को जाम भाता है किसी को शबनमी बँूदें
किसे मालूम है कैसा भला इस तिश्नगी का रंग/3
महज इक आदमी है तू न ही हिंदू न ही मुस्लिम
करे बदरंग क्यों बतला तू बँटकर जिंदगी का रंग/4
अगर बँटना ही है तुझको तो बँट तू रोशनी जैसा
कि बँट रंगीन हो जाता हमेशा रोशनी का रंग/5
अभी तक मीर गालिब थे चले आए हैं साहिर भी
‘मुसाफिर’ खूब महफिल में जमेगा शायरी का रंग
शानदार ग़ज़ल
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