शाम का समय था और गाँव के बाजार में अचानक किसी ने मास्टर जी की साईकिल को पीछे से पकड़ कर रोक लिया और बोला, “अरे पहचानिए–पहचानिए ।’’
“अच्छा रुकिये जरा नजदीक से देखने दीजिये -मास्टर जी ने अपना चश्मा लगाया और बोले -अरे रामजी मिश्रा, तुम! कब आये दिल्ली से? और बताओ, कर क्या रहे हो आजकल ?”
“रिक्शा ठेल रहा हूँ साले तुम्हारी कृपा से, साला जिंदगी नरक हो गयी है दिल्ली की सड़कों पर, जिसको देखो वही १-२ रुपयों के लिए लतिया कर चल देता है, न ढंग की जगह है रहने को, न परिवार को ही पाल पा रहे हैं, यहाँ आते हैं तो अम्मा-बाऊजी भी आस लगाये रहतें हैं की बचवा कुछ कमा कर लाये होंगे, और हमारे दिल से पूछिए की हम क्या कर पा रहे हैं परिवार के लिए? घंटा ! मन तो कर रहा है आपको चप्पल उतारकर यहीं से मारना शुरू करें और गाँव तक लेकर जायेँ ।’’
“अरे, हमको काहें बीच बाज़ार गरियाने पर लगे हो यार, हम तुम्हारा क्या बिगाड़ें हैं, ताड़ी पी लिए हो क्या ?”
“काहें न गरियायें, आप तो स्कूल के हेड मास्टर थे ना और आपका वो सब चेला मास्टर लोग, कोई हम सबको ठीक से नहीं पढ़ाया, एक तो सब घर बैठ कर सरकारी तनख्वाह लेते थे, कभी- कभी आते भी तो कहते, जाओ बच्चा लोग मौज करो, अरे हमारे माई-बाऊ तो अनपढ़ थे, आप लोगों पर विश्वास करके अपना पेट काट-काट कर फीस नहीं जमा किये क्या ? आप तो हम लोगों से अपना ईंटा, बालू , गिट्टी ढोलवा- ढोलवा कर, पक्का मकान बनवा लिए, हम सरवा आज तक अपना छप्पर तक नहीं ठीक करवा पाए ।’’
“कैसी बातें कर रहे हो रामजी मिश्रा ! पगला गए हो क्या? भई गुरु हैं हम तुम्हारे ।’’
“अब गुरू तो आप नहीं हैं, न बन पायेंगे, चलिए पीछे बैठिये अब साईकल रामजी मिश्रा चलायेंगे ।’’
इधर रामजी मिश्रा के शब्दों के सनसनाते हुए बाण मास्टर जी को छलनी किये जा रहे थे ।
© हरि प्रकाश दुबे
"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
आदरणीय हरि प्रकाश जी, बड़ी उम्मीद लेकर आपकी लघुकथा पढ़ना शुरू किया तो महसूस हुआ कि एक महत्त्वपूर्ण विषय को आपने कथ्य के रूप में चुना है. एक जोरदार अंत देखने की अभिलाषा लेकर पढ़ता गया लेकिन ..... न जाने क्यों...निराश होना पड़ा. यह मैं इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि मैं जानता हूँ कि आपकी लेखनी कहानी को ऐसा मोड़ देने में सक्षम है कि पाठक की चेतना कुछ देर के लिए अस्त-व्यस्त हो जाए......इस कथा के अंत में उस चोट की कमी खल गयी. सादर.
आदरणीय हरि प्रकाश भाई जी, शिक्षा व्यवस्था पर कटाक्ष करती शानदार प्रस्तुति है. हार्दिक बधाई
किस तरह से कई कई सरकारी स्कूलों में शिक्षक बच्चों के भविष्य के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं ...उसका बहुत सटीक जीवंत चित्र प्रस्तुत करती है आपकी ये लघुकथा
काश सचमुच ये सनसनाते बाण हेडमास्टर के सीने पर लगें और हालात कुछ सुधरें
प्रस्तुत लघुकथा पर हार्दिक बधाई प्रेषित है आ० हरि प्रकाश दुबे जी
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