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भर कर जेबें रोज चढ़े है - ( ग़ज़ल ) -लक्ष्मण धामी "मुसाफिर "

2222    2222     2222    222

सुनते सुनते  गीत प्रेम का क्या सूझी पुरवाई को
कोयल आँसू भर भर देखे आग लगी अमराई को /1

बात कहूँ तो बन जाएगी जग की यार हँसाई को
जैसे तैसे झेल रहा  हूँ  जालिम की रूसवाई को /2

दिन तो बीते आस में यारो शायद चलती राह मिले
किन्तु पुराने खत पढ़  काटा  रातों की तनहाई को /3

वो साहिल की रेत देख कर चाहे यूँ ही लौट गया
ख्वाबों में  देखेगा  लेकिन  दरिया की गहराई को /4

भर कर जेबें  रोज चढ़े है मस्ती  को सैलानी तू
हमको रोटी विवश कर गई पर्वत से उतराई को /5

कहते हैं उसका तो रिश्ता सूरज रहने तक ही है
ढूँढ रहा है क्यों तू  पगले साँझ ढले परछाई को /6

बच्चे की जिद चाँद को  छूना पूरे घर का दर्द बना
घर में थाल नहीं  पानी  का बच्चे की मनवाई को /7

ढूँढ रहे हैं  खोट  तात में इस बस्ती के लोग सभी
माता का सम्बोधन बोला जब से घर की बाई को /8

यार ‘मुसाफिर’ इस युग जग में नेकी मत कर कोई भी  
चर्चित  होना  है  गर  तुझको  आग  लगा  अच्छाई को /9

मौलिक और अप्रकाशित

लक्ष्मण धामी "मुसाफिर "

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Comment

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Comment by kanta roy on February 4, 2016 at 11:15am
वाह ! बहुत ही शानदार गजल की प्रस्तुति हुई है आपकी आदरणीय लक्ष्मण धामी जी । बधाई कबूल फरमाईयेगा ।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on February 4, 2016 at 12:38am

आदरणीय लक्ष्मण धामी सर जी, बहुत शानदार ग़ज़ल कही है. शेर दर शेर दाद हाज़िर है. सादर 

Comment by Tasdiq Ahmed Khan on February 3, 2016 at 7:38pm

जनाब लक्ष्मण धामी साहिब ,   बहुत अच्छी ग़ज़ल कही आपने ,मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं। ... शेर 6 के सानी मिसरे में जो क़ाफ़िया परछाई इस्तेमाल किया है उसे देख लीजिये क्योकि सही शब्द परछाईं है। .... शुक्रिया

Comment by Samar kabeer on February 3, 2016 at 6:18pm
जनाब लक्ष्मण धामी'मुसाफ़िर'जी आदाब,बहुत अच्छी ग़ज़ल हुई है,बधाई स्वीकार करें !
सातवें शैर के ऊला मिसरे में 'ज़िद'चूँकि स्त्रीलिंग है इस वजह से मिसरे का आख़री शब्द 'बना'की जगह 'बनी'करना उचित होगा ?
Comment by TEJ VEER SINGH on February 3, 2016 at 12:26pm

हार्दिक बधाई आदरणीय लक्ष्मण धामी जी!बेहतरीन गज़ल!

Comment by Ravi Shukla on February 3, 2016 at 10:58am

आदरणीय लक्ष्‍मण जी बहुत बढि़या गजल कही है आपने शेर दर शेर दाद कुबूल करें खास कर ये शेर तो दिल को छू गया

ढूँढ रहे हैं  खोट  तात में इस बस्ती के लोग सभी
माता का सम्बोधन बोला जब से घर की बाई को.....   बहुत बहुत बधाई इस गजल के लिये ।

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