2222 2222 2222 222
सुनते सुनते गीत प्रेम का क्या सूझी पुरवाई को
कोयल आँसू भर भर देखे आग लगी अमराई को /1
बात कहूँ तो बन जाएगी जग की यार हँसाई को
जैसे तैसे झेल रहा हूँ जालिम की रूसवाई को /2
दिन तो बीते आस में यारो शायद चलती राह मिले
किन्तु पुराने खत पढ़ काटा रातों की तनहाई को /3
वो साहिल की रेत देख कर चाहे यूँ ही लौट गया
ख्वाबों में देखेगा लेकिन दरिया की गहराई को /4
भर कर जेबें रोज चढ़े है मस्ती को सैलानी तू
हमको रोटी विवश कर गई पर्वत से उतराई को /5
कहते हैं उसका तो रिश्ता सूरज रहने तक ही है
ढूँढ रहा है क्यों तू पगले साँझ ढले परछाई को /6
बच्चे की जिद चाँद को छूना पूरे घर का दर्द बना
घर में थाल नहीं पानी का बच्चे की मनवाई को /7
ढूँढ रहे हैं खोट तात में इस बस्ती के लोग सभी
माता का सम्बोधन बोला जब से घर की बाई को /8
यार ‘मुसाफिर’ इस युग जग में नेकी मत कर कोई भी
चर्चित होना है गर तुझको आग लगा अच्छाई को /9
मौलिक और अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी "मुसाफिर "
Comment
आदरणीय लक्ष्मण धामी सर जी, बहुत शानदार ग़ज़ल कही है. शेर दर शेर दाद हाज़िर है. सादर
जनाब लक्ष्मण धामी साहिब , बहुत अच्छी ग़ज़ल कही आपने ,मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं। ... शेर 6 के सानी मिसरे में जो क़ाफ़िया परछाई इस्तेमाल किया है उसे देख लीजिये क्योकि सही शब्द परछाईं है। .... शुक्रिया
हार्दिक बधाई आदरणीय लक्ष्मण धामी जी!बेहतरीन गज़ल!
आदरणीय लक्ष्मण जी बहुत बढि़या गजल कही है आपने शेर दर शेर दाद कुबूल करें खास कर ये शेर तो दिल को छू गया
ढूँढ रहे हैं खोट तात में इस बस्ती के लोग सभी
माता का सम्बोधन बोला जब से घर की बाई को..... बहुत बहुत बधाई इस गजल के लिये ।
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