" रॉय जी ! मुझे नायर जी ने बताया कि आप भी शिक्षा के क्षेत्र में बिजनेस करना चाहते हैं।"
" जी हाँ, आप से इसी बारे में बात करनी है।आप दो- दो इंजिनियरिंग कॉलेज और एक मेडिकल कॉलेज चला रहे हैं।आपको काफी अनुभव होगा।"
" रॉय जी ! इंजीनियरिंग कॉलेज खोलना अब घाटे का सौदा है।मेरे ही दोनों कॉलेज में इस साल दो हज़ार सीटें खाली हैं ।समझ नहीं आ रहा लोगों को अब क्या हो गया।पहले तो हर माँ -बाप अपने बेटे को इंजीनियर बनाना चाहते थे। " गुप्ता जी ने दीवार पर लगे गांधी जी की तस्वीर पर एक नज़र डालते हुए कहा।
" ओह... तो मेडिकल कॉलेज कैसा रहेगा ?"
" देखिये रॉय जी ! मेडिकल कॉलेज खोलना बहुत महंगा है। हाँ अगर खोल लिया तो चाँदी क्या सोना काटेंगें।"
" अब ज्यादा न सोचिये रॉय साहब! शिक्षा के क्षेत्र में निजीकरण ने तो हम लोगों के दोनों हाथों में लड्डू थमा दिए हैं ।हम बिजनेसमैन हैं।अगर हम ये मानवता और नैतिकता के बारे में सोचेंगे तो खायेंगें क्या ? " एक आँख दबाते हुए नायर जी ने कहा।और ये सुनते ही एक समवेत ठहाका कमरे में गूँज उठा।
" अरे कुछ टूटा क्या ? कुछ चटकने की आवाज़ आई।" नायर जी ने इधर-उधर देखते हुए कहा।
" नहीं कुछ भी तो नहीं ।"गुप्ता जी बोले।
किसी की नज़र गाँधी जी की तस्वीर के चटके हुए शीशे पर नहीं पड़ी।
मौलिक एवम् अप्रकाशित
Comment
आदरणीय जानकी जी, /हम बिजनेसमैन हैं।अगर हम ये मानवता और नैतिकता के बारे में सोचेंगे तो खायेंगें क्या ?/ कथा को ये पंक्ित बहुत कमजोर बना रही है। वार्तालाप से जाहिर हो रहा है कि दोनो महानुभाव अपने व्यक्ितगत लाभ के विषय में ही बात कर रहे हैं और उन्हे मानवता अथवा नैतिकता से कुछ लेना देना नहीं है। कथा में गांधी जी की तस्वीर के शीशे का चटकना भी कथा में संश्िलष्टता ला रहा है। इस कमजोर कथा पर कुछ और परिश्रम करने की आवश्यकता थी । सादर
हार्दिक आभार आदरणीय मिथलेश जी
आदरणीया जानकी जी इस प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई.
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