ग़ज़ल
२२१/२१२/११२२/१२१२
कश्ती थी बादबानी, हवा ही नहीं चली,
मर्ज़ी नहीं थी रब की सो अपनी नहीं चली.
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ज़ह’न-ओ-जिगर की, दिल की, अना की नहीं चली
मौला के दर पे क़िस्सा कहानी नहीं चली.
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कितने थे शाह कितने क़लन्दर क़तार में,
धमक़ी तो छोड़ दीजिये, अर्ज़ी नहीं चली.
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धुलवा दिए थे अश्क-ए-नदामत से सब गुनाह,
चादर वहाँ ज़रा सी भी मैली नहीं चली.
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होता रहा हिसाब-ए-अमल, रोज़-ए-हश्र, ‘नूर’
कोई वहाँ पे बात किताबी नहीं चली.
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पुछल्ला
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हम मुफ़्लिसी के दौर में मैख़ाने कम गए,
हम को शराब, पर कभी, सस्ती नहीं चली.
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निलेश "नूर"
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
शुक्रिया आ. सतविन्द्र जी
शुक्रिया आ. रामबली गुप्ता जी
शुक्रिया आ. नरेंद्र सिंह जी
बेहद्खुब आदरणीय
लाजवाब ,
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