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बात इतनी ही नहीं है, आदरणीया, बात पंक्चुएशन और वाक्य-संयोजन की भी है. यदि आप कृपया देखेंगीं तो आपकी रचना और संशोधित प्रारूप में इसके अलावा भी कुछ अंतर दिखेगा. हम इसी तरह सीखते हैं और सीखते रहे हैं.
सादर
आ.सौरभ जी आप की बात पूरी तरह समझ गई. एक बात और समझ आई की ये संवाद मानो मै ही लोल रही होती तो किस रौ मे बोलती.इसका मतलब रचना लिखने के बाद खुद उसे जोर से बोलकर पढा जाए तो बहूत सारी बातें स्पष्ट हो सकती है. आभार आपका जो मेरी गलतियो को सकारत्मक लेते हुए सुझाव भी दिया. बस यहाँ अमूक-अमूक गलत है कहकर बात खत्म ना हुई.शतश: आभार
यह भी तो बेटी ने माँ से कहा है न ? --
"बस करो माँ! कई दिनो से सौम्या का दबा आवेश बाहर निकल आया था। जिसे तुम परकटी कह रही हो ना वो लाख गुना बेहतर है तुमसे। समझती है मेरे मन को भी। पुरी आज़ादी है मुझे वहाँ काम के साथ-साथ अपने शौक पूरे करने की और... ना ही भाई की तरह तुम्हारे दामाद को उन्होने मुट्ठी मे कर रखा है। "
तो फिर, "माँ!आखिर एक औरत ही औरत को कब समझेगी। " जैस वाक्य बेटी के उसी रौ में बोलने के बावज़ूद अलग क्यों है, आदरणीया ? मेरा पूरा सवाल ये है.
खैर, आप अपनी कथा को अब देखें. कोई ख़ास परिवर्तन नहीं किया है मैंने. बस पंक्चुएशन का सही प्रयोग हुआ है --
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पड़ोस के गुप्ता आंटी के घर से आती तेज आवाज़ से तन्मय के कदम अचानक बालकनी मे ठिठक गये - "अरे ! ये आवाज़ तो सौम्या की लग रही है !"
यथा नाम तथा गुण वाली सौम्या को तन्मय ने हरदम बस घर के कामों मे ही मगन देखा था, या फ़िर चुपचाप कॉलेज जाते हुए । हरदम उसके घर वालों का का एक जुमला ज़ुबान पर होता - ’काम ना करेगी तो ससुराल वाले लात मार कर बाहर कर देंगे ।’
सौम्या भी चुपचाप क्यो सहती, तन्मय आज तक न समझ पाया था । और एक दिन, वह ब्याह कर चली गई थी । शहर छोड़कर...
"माँ ! समझती क्यो नहीं हो, भाभी पेट से है, उनसे इतने भारी-भारी काम ..."
"सुन सौम्या ! अब तुझे इस घर मे बोलने का कोई हक नहीं है । जो भी कहना सुनना है.. और सुन, अब भाभी के रहते तुझे किसी काम को छूने की जरुरत नही है । वैसे भी वो तेरी परकटी आधुनिक सास तो कुछ काम ना करती होगी । सारा दिन पिसती रहती होगी तू भी, कोल्हू के बैल-सी ।"
"बस करो माँ..! " - कई दिनो से सौम्या का दबा हुआ आवेश क्रोध बन बाहर निकल आया था - "जिसे तुम परकटी कह रही हो ना.. वो लाख गुना बेहतर है तुमसे । समझती है वो मेरे मन की भी । पूरी आज़ादी है मुझे वहाँ । काम के साथ-साथ अपने शौक पूरे करने की भी । और सुनो... ना ही मेरे भाई की तरह उन लोगों ने तुम्हारे दामाद को अपनी मुट्ठी मे कर रखा है । माँ, आखिर एक औरत ही औरत को कब समझेगी ?... "
पड़ोस के आँगन के केक्टस मे गोया आज फूल खिल आये थे और तन्मय के दिल मे ठंडक !
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विश्वास है, बात स्पष्ट हुई होगी.
सादर
आ.सौरभ जी यह वाक्य बेटी ने माँ को कहा है. शायद यहाँ मुझे लिखना चाहिए था कुछ इस तरह
"माँ!आखिर एक औरत ही औरत को कब समझेगी। "--बेटी ने माँ से कहा.
आप ने रचना पर अमूल्य समय देकर बुझे बेहतरी कि ओर अग्रसर करने का सुझाव दिया इस हेतू मैं ह्रदयतल से आपकी आभारी हूँ.
सदा शुभभाव
"माँ!आखिर एक औरत ही औरत को कब समझेगी। "
उपर्युक्त वाक्य किसका कहा हुआ है ?
रचना अच्छी है आदरणीया नयना जी. लेकिन प्रस्तुतीकरण के प्रति सचेत रहना अपनी रचना को परिष्कार के साथ सापेक्ष करने के समान होता है. इसी कारण आपसे ऊपर में प्रश्न किया है मैंने.
सादर शुभकामनाएँ
निलेश! पिछले ३-४ माह से नियमित रुप से ओबीओ के सभी आयोजनो मे बराबर हिस्सा ले रही हूँ सिर्फ़ तरही मुशायरा छोडकर. उसपर अभी गजले पढती रहती हूँ.मात्रा गणना का अभ्यास होने पर कुछ लिखने का प्रयत्न करूँगी.पिछले छंदोत्सव(चित्र आधारित) मे दोहो पर प्रयत्न किया. महाउत्सव मे नवगीत,सार छंद पर भी कलम आजमाईश की है.किंतु अभी बस "अ" "आ" ही सिखा है,अब गजल के लिये तुम्हारा मार्ग्दर्शन मिलेगा तो आगे प्रयत्न करूँगी.
तुम्हारा मेरी रचना तक पहूँचना सुकून भरा लगा.
भोपाल के आयोजन मे दूसरे दिन मेरे घर पारिवारिक कर्यक्रम मेरे नाती (भतिजे का बेटा) का जनेऊ संस्कार था इस वजह पहूँच नही पाई.तुमसे मुलाकात का मौका छुट गया.
नयना ताई!! मुझे नहीं पता था कि आप भी मंच पर हैं...OBO भोपाल के चित्र देखे तो आपकी उपस्थिति ज्ञात हुई.
आप की कहानी उम्दा है और इस मौज़ू (गुप्ता आँटी टाइप) पर पहले कभी एक शेर कहा था मैंने जो अनायास ही याद आ गया ...पेश करता हूँ..
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बहुओं की बात थी तो शिकायत थी और कुछ
जब बेटियों पे आई, नसीहत बदल गयी.
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नूर
आदरणीया आरती जी,
नयना बनने के बाद सम्बन्धों के तराजू को सीधा पकडा़ है. अगर कथा के माध्यम से व्यक्तिगत हो रहा हूँ तो माफ़ करेंगी.
बहुत सुन्दर कथा.
कथा में कुछ छूटी हुई कडि़यां है उन्हे कसने के बाद कथा खुल कर आयेगी.
सादर.
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