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ग़ज़ल मनोज अहसास(इस्लाह के लिए)

221 2121 1221 212

बेचैनियों के रंग सवालो में भर गये
मंज़िल से पूछता हूँ कि रस्ते किधर गये

दिल को निचोड़ा इतना कि अहसास मर गये
खुद को बिगाड़ कर तुझे हम पार कर गये

मुझको उदास देखा जो मिलने के बाद भी
वो अपने दिल का दर्द बताने से डर गये

पूनम की शब का चाँद जो खिड़की पे आ गया
कमरे में मेरे यादों के गेसू बिखर गये

साहिल की कैद में कहीं जलती है इक नदी
मेरे ख्याल रेत के दरिया में मर गये

वीरानियों को अपना मुकद्दर समझ लिया
सारे फरेब सहके वो चुप में उतर गये

महताब पर नहीं है हवा भी सकून भी
सन्नाटा दिल में भरने को हम क्यों उधर गये

मौलिक और अप्रकाशित

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Comment by gumnaam pithoragarhi on April 10, 2016 at 1:31pm

बहुत खूब ग़ज़ल हुई है भाई जी बधाई 

Comment by मनोज अहसास on April 8, 2016 at 10:04am
आदरणीय बैजनाथ जी
आदरणीय शकूर साहब

बहुत बहुत शुक्रिया
सादर

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on April 7, 2016 at 9:43pm
बहुत बढ़िया जनाब मनोज अह्सास जी
Comment by DR. BAIJNATH SHARMA'MINTU' on April 7, 2016 at 5:57pm

आदरणीय मनोज साहेब ..........वाह वाह ..........बधाई 

वीरानियों को अपना मुकद्दर समझ लिया
सारे फरेब सहके वो चुप में उतर गये

Comment by मनोज अहसास on April 7, 2016 at 2:20pm
आदरणीय समर कबीर साहब
सादर नमन
आपका मार्गदर्शन सदैव बहुमूल्य है
बहुत बहुत शुक्रिया
सादर
Comment by मनोज अहसास on April 7, 2016 at 2:18pm
बहुत बहुत शुक्रिया
आदरणीय रामबली गुप्ता जी
सादर
Comment by Samar kabeer on April 6, 2016 at 6:29pm
गैसू ।
Comment by Samar kabeer on April 6, 2016 at 6:27pm
जनाब मनोज कुमार अहसास जी आदाब,बहुत दिनों बाद आपकी ग़ज़ल से रूबरू हुआ हूँ,वाह बहुत ख़ूब शानदार ग़ज़ल कही आपने दिल बाग़ बाग़ हो गया,शैर दर शैर दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएँ ।
चौथा शैर मेरे हिसाब से इस तरह होना चाहिये:-
"पूनम का चाँद जैसे ही खिड़की में आ गया
कमरे में उनकी यादों के गैसु बिखर गये "।
Comment by रामबली गुप्ता on April 6, 2016 at 2:07pm
वाह आद.मनोज जी हर शेर लाज़बाब
Comment by मनोज अहसास on April 6, 2016 at 1:42pm
आदरणीय नीलेश जी
आदरणीय धामी जी
आदरणीया राजेश कुमारी जी

बहुत बहुत आभार
नीलेश जी आपकी इस्लाह पर गौर कर रहा हूँ

किसी साथी की विस्तृत इस्लाह की भी प्रतीक्षा है
सादर

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