2212,121,122,1212
पल में हुई मैं खुद से पराई कुछ इस तरह
थामी उन्होंने हाय! कलाई कुछ इस तरह
नस-नस में सिहरने हैं, निगाहों में है सुरूर
साँसों में उनकी याद समाई कुछ इस तरह
हम कँपकँपा के रह गए और वो समझ गए
खामोशियों ने बात बताई कुछ इस तरह
ओढ़े जब उनके रंग तो तन-मन महक उठे
मेहँदी में उनकी प्रीत सजाई कुछ इस तरह
आँखों में उनकी अक्स बस अपना हमें दिखा
उनसे चुरा के आँख मिलाई कुछ इस तरह
बातें सतह पे और मगर अर्थ और थे
दो पल घड़ी मिलन की बिताई कुछ इस तरह
हाथों में ले के हाथ, हथेली को चूम कर
अपनी ख़ुशी उन्होंने जताई कुछ इस तरह
हम रात भर जले वो पिघलते चले गए
चाहत की रस्म हमने निभाई कुछ इस तरह
मौलिक और अप्रकाशित
Comment
बहुत ही खूबसूरत गज़ल के लिए बहुत सारी बधाई।
अच्छी ग़ज़ल हुई है आदरणीया प्राची जी, दाद कुबूल करे।
आदरणीया प्राची जी ..रूमानियत से भरी इस रचना से आपके वैबिध्य से भरे लेखन की एक और झलक मिली ..आदरणीय डॉ गोपाल सर ने आपके स्वास्थ्य के सम्बन्ध में लिखा मैं भी इश्वर से शीघ्रती शीघ्र आपके स्वास्थ्य लाभ की दुआ करते हुए आपको इस शानदार रचना के लिए हार्दिक बधाई देता हूँ /सादर
बहुत बढ़िया आदरणीया . शरदिंदु दादा से आपकी बीमारी का हाल सुनकर दुःख हुआ. ईश्वर आपको शीघ्र आरोग्य करे . सादर .
लाजवाब रचना
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