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चाहत की रस्म हमने निभाई कुछ इस तरह...ग़ज़ल// प्राची

2212,121,122,1212

पल में हुई मैं खुद से पराई कुछ इस तरह
थामी उन्होंने हाय! कलाई कुछ इस तरह

नस-नस में सिहरने हैं, निगाहों में है सुरूर
साँसों में उनकी याद समाई कुछ इस तरह

हम कँपकँपा के रह गए और वो समझ गए
खामोशियों ने बात बताई कुछ इस तरह

ओढ़े जब उनके रंग तो तन-मन महक उठे
मेहँदी में उनकी प्रीत सजाई कुछ इस तरह

आँखों में उनकी अक्स बस अपना हमें दिखा
उनसे चुरा के आँख मिलाई कुछ इस तरह

बातें सतह पे और मगर अर्थ और थे
दो पल घड़ी मिलन की बिताई कुछ इस तरह

हाथों में ले के हाथ, हथेली को चूम कर
अपनी ख़ुशी उन्होंने जताई कुछ इस तरह

हम रात भर जले वो पिघलते चले गए
चाहत की रस्म हमने निभाई कुछ इस तरह

मौलिक और अप्रकाशित 

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Comment by vijay nikore on April 24, 2016 at 3:50pm

बहुत ही खूबसूरत गज़ल के लिए बहुत सारी बधाई। 

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 24, 2016 at 2:10pm

अच्छी ग़ज़ल हुई है आदरणीया प्राची जी, दाद कुबूल करे।

Comment by Dr Ashutosh Mishra on April 24, 2016 at 10:59am

आदरणीया प्राची जी ..रूमानियत से भरी इस रचना से आपके वैबिध्य से भरे लेखन की एक और झलक मिली ..आदरणीय डॉ गोपाल सर ने आपके स्वास्थ्य के सम्बन्ध में लिखा   मैं भी इश्वर से शीघ्रती शीघ्र आपके स्वास्थ्य लाभ की दुआ करते हुए आपको इस शानदार रचना  के लिए हार्दिक बधाई देता हूँ /सादर 

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on April 22, 2016 at 8:10pm

बहुत बढ़िया  आदरणीया . शरदिंदु दादा से आपकी बीमारी का हाल सुनकर दुःख हुआ. ईश्वर आपको शीघ्र आरोग्य करे . सादर . 

Comment by narendrasinh chauhan on April 21, 2016 at 5:24pm

लाजवाब रचना

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