२२ २२ २२ २२ २२ २
हँसते दर्पण जब जब तेरी आँखों के
रफ़्ता रफ़्ता महके गुलशन साँसों के
धीमे धीमे होती है ये रात जवाँ
ख़्वाब मचलते हैं प्यासे पैमानों के
कैसे डूबे भँवरों में किश्ती नादां
सिखलाते हमको गड्ढे रुखसारों के
गोया नभ से चाँद उतर आया कोई
चेह्रे से हटते ही साए बालों के
पार उतर आये हम तूफां से बचकर
मस्त सफीने पाए तेरी बाहों के
खूब शफ़ा मिलती है गम के छालों को
जब लगते हैं मर्हम तेरी बातों के
अपने आँगन में भी महके फूल कभी
मौसम आते जाएँ ये मुलाकातों के
चाहे कितनी गर्दिश में हो हम दोनों
टूटें ना ये कौल हमारे वादों के
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
घर में बच्चे छुट्टियों में आये हुए हैं १५ मई को मुझे साथ भी लेकर जा रहे हैं आप भी मेरी व्यस्तता समझ सकते हैं कई दिनों के बाद अति व्यस्तता के बावजूद आज वक़्त निकाल कर पोस्ट पर आना हुआ |आपकी बातों से पूर्णतः सहमत हूँ किन्तु इस मिसरे में शुरू से ही गड़बड़ मुलाक़ात शब्द को लेकर हो रही है मूलाकात कर नहीं सकती शब्द की यहाँ डीमांड है इसी लिए ये रस्साकशी चल रही है | आपको ग़ज़ल बढ़िया लगी हार्दिक आभार आ० सौरभ जी
बढिया.. !
मगर अचानक मिसरा आया - मौसम आते जाएँ ये मुलाकातों के
आदरणीया, हलवे के मुलायम मधुर ग्रास में गोया कंकड़ पड़ गया !
आप ऐसी बहर को मात्रिक बहर कहती हैं न तो समकल के बाद समकल और त्रिकल के बाद त्रिकल वाला फ़ॉर्मूला क्यों नहीं अपनातीं ? -
१. सम सम सम सम सम लिखते हैं
२. विषम विषम पर सम लिखते हैं
जय हो..
जयनित कुमार जी ,आपको ग़ज़ल पसंद आई तहे दिल से आभार आपका |
आ० रवि भैया ,ग़ज़ल पर आपकी शिरकत और दाद से प्रसन्न हूँ इस ग़ज़ल पर एक स्वस्थ चर्चा हो रही है इस ग़ज़ल के लिए ये बहुत अच्छा संकेत है जब लोग किसी रचना की रूह में उतर कर समीक्षा करते हैं तो उस रचना का समझो भाग्य खुल जाता है तस्दीक जी ,मिथिलेश भैया के साथ साथ आप सभी के विचारों का स्वागत करती हूँ मिसरे तो मूल पोस्ट में सुधार चुकी हूँ इसमें भी एडिट कर लूँगी |
आ० धर्मेन्द्र जी,आपको ग़ज़ल पसंद आई आपका दिल से बहुत-बहुत शुक्रिया |
आदरणीयाा राजेश दीदी बड़ी खूबसूरत रवायती अंदाज की गजल हुई है दिली दाद और मुबारक बाद हाजिर है पढ़ते समय हमेंं भी अंतिम दो शेेर पर प्रवाह में कठिनाई आइै थी पर ये जानते हैै कि शिल्प में कही कोई चूक नहीं है फिर आपकी गजल पर हुई चर्चा भी पढ़ी निवेदन सिफ इतना है कि अच्छी गजल अगर मिसरों मेंं थोड़े से संशोधन से और अच्छी बेदाग हो सकती है तो आप अवश्य करेंगी ।
छाेटा मुह बड़ी बात न लगे तो
कभी न टूटे कौल हमारे वादों के पर भी विचार कर सकती है आप सादर
बड़ी ख़ूबसूरत ग़ज़ल हुई है आदरणीया राजेश कुमारी जी, दाद कुबूल करें। बाकी मिथिलेश जी कह ही चुके हैं।
मिथिलेश भैय्या ,ग़ज़ल पर आपकी दाद ने होंसला बढाया तहे दिल से शुक्रिया |मिसरों पर आपकी इस्स्लाह काबिले गौर है
दरअसल मैं अंतिम शेर के मिसरे में ना के प्रयोग से बचना चाह रही थी किन्तु मेरे जानकार एक वरिष्ट शायर ने कहा कोई प्रोब्लम नहीं है
आपका क्या ख़याल है इन्हें देखें ---
अपने आँगन में भी महके फूल कभी
मौसम आते जाएँ ये मुलाकातों के---आपने सही सुझाया (मैंने पहले ऐसे भी कर के देखा था किन्तु कई बार हम खुद गलती कर बैठते हैं)
चाहे कितनी गर्दिश में हो हम दोनों
टूटें ना ये कौल हमारे वादों के
आ० नीलेश भैय्या आपको ग़ज़ल पसंद आई मेरा लिखना सार्थक हुआ अब मिसरों को इस तरह संशोधित कर रही हूँ नजरें सानी करें प्लीज
अपने आँगन में भी महके फूल कभी
मौसम आये जाएँ ये मुलाकातों के
चाहे कितनी गर्दिश में हो हम दोनों
टूटें ना ये कौल हमारे वादों के -----(यहाँ ना का प्रयोग करना पड़ रहा है एक बड़े वरिष्ठ शायर की इस्स्लाह से ये हिम्मत की है आपकी क्या राय है |
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