१२१२/११२२/१२१२/२२ (११२)
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नए मिज़ाज के लोगों में तल्खियाँ हैं बहुत,
कई ख़ुदा से, कई ख़ुद से सरगिराँ हैं बहुत.
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किसी के मिलने मिलाने का पालिये न भरम,
ज़मीं-फ़लक में उफ़ुक़ पर भी दूरियाँ हैं बहुत.
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अभी ग़ज़ल में कई रँग और भरने हैं,
अभी ख़याल की शाख़ों पे तितलियाँ हैं बहुत.
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सियासी चाल है हिन्दी की जंग उर्दू से,
सहेलियाँ हैं ये बचपन की; हमज़बाँ हैं बहुत.
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परिंदे यादों के, आ बैठते हैं ताक़ों पर,
उजाड़ माज़ी के खंडर में खिड़कियाँ हैं बहुत.
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गुरूर ‘नूर” न कर; सिर्फ़ तू नहीं तन्हा,
ज़माने भर में तेरे जैसे राएगाँ हैं बहुत.
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निलेश "नूर"
मौलिक / अप्रकाशित
Comment
आदरणीय निलेश जी, हमेशा की तरह एक शानदार ग़ज़ल. ये मिसरा पढ़कर तो चमत्कृत हूँ- //ज़मीं-फ़लक में उफ़ुक़ पर भी दूरियाँ हैं बहुत. //
इस शानदार ग़ज़ल पर दिल से दाद ओ मुबारकबाद
सादर
हाय तबियत की रवानी तेरी !
KYAA BAAT HAI WAH WAH WAH
मतले के शेर से मक्ते के शेर तक जवाब नहीं आपका आदरणीय नीलेश जी.... आपने कल लिखा था आपने शुरुआत की ३०० ग़ज़ल फेंकी है ये उन्हीं ग़ज़लों की तपिश है जो आज आपकी ग़ज़ल सोने की तरह चमक लिए हुए है | बहुत मुबारकबाद आपको .....
सियासी चाल है हिन्दी की जंग उर्दू से,
सहेलियाँ हैं ये बचपन की; हमज़बाँ हैं बहुत.
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परिंदे यादों के, आ बैठते हैं ताक़ों पर,
उजाड़ माज़ी के खंडर में खिड़कियाँ हैं बहुत.
बहुत खूब |
परिंदे यादों के, आ बैठते हैं ताक़ों पर,
उजाड़ माज़ी के खंडर में खिड़कियाँ हैं बहुत.
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गुरूर ‘नूर” न कर; सिर्फ़ तू नहीं तन्हा,
ज़माने भर में तेरे जैसे राएगाँ हैं बहुत.
दिल कैसे न डूबे ऐसी ग़ज़ल के समंदर में .... खूबसूरत अहसासों की महक से लबरेज़ इस शानदार ग़ज़ल के लिए दिल से बधाई स्वीकार करें आदरणीय नीलेश जी।
परिंदे यादों के, आ बैठते हैं ताक़ों पर,
उजाड़ माज़ी के खंडर में खिड़कियाँ हैं बहुत.
बहुत ही सजीव शब्द- चित्र ...........बधाई
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