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राजनीति से जिन लोगों की, रोज़ी रोटी चलती है।
सच का करें विरोध अगर वो, तो उनकी क्या गलती है।।
किन्तु लेखनी वाले लोगों, से मेरा बस प्रश्न यही।
उनकी नैतिकता क्यों झूठे रंगों में हाँ ढ़लती है।।
वर्ग विभाजन लोकतंत्र में तो बस सत्ता की कुंजी।
किन्तु नीति यह सृजन क्षेत्र में आख़िर काहें मिलती है।।
यद्यपि आज़ादी से लेकर तुझसे नेता कई लड़े।
फिर भी अरे गरीबी तेरी चूल न काहें हिलती है।।
सोचो नफ़रत से कुछ हासिल, कौन यहाँ पर कर पाया।
ईर्ष्या वाली आग हृदय में, फिर बोलो क्यों जलती है।।
सरकारों नें अगर बख़ूबी, अपना फ़र्ज़ निभाया तो।
आज तलक भारत की जनता, सिर्फ़ हाथ क्यूँ मलती है।।
थोड़ा सा हम बदल रहे हैं थोड़ा सा तुम भी बदलो।
शीतल मन्द बयार बहेगी, यदि ये बर्फ पिघलती है।।
मौलिक-अप्रकाशित
Comment
आदरणीय पंकज जी, बढ़िया ग़ज़ल कही है आपने. हार्दिक बधाई. थोड़ी सी गुंजाइश वाक्य विन्यास की लग रही है. यदि उचित लगे तो इस पर विचार कीजियेगा. जैसे -
सोचो नफ़रत से कुछ हासिल, कौन यहाँ पर कर पाया।
सोचो कौन यहाँ कर पाया, नफरत से कुछ भी हासिल ?
सोचो कौन यहाँ नफरत से, कुछ भी हासिल कर पाया ?
आपने को बड़े ही सहज धग से प्रस्तुत किया अप को बहुत बहुत बधाई स्वीकार हो
थोड़ा सा हम बदल रहे हैं थोड़ा सा तुम भी बदलो।
शीतल मन्द बयार बहेगी, यदि ये बर्फ पिघलती है।।
वाह आदरणीय पंकज जी बहुत ही सुंदर और यथार्थपरक अशआर कहे हैं आपने। हार्दिक बधाई स्वीकार करें आदरणीय इस प्रस्तुति पर।
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