आज तुम असमंजस में क्यूँ हो
देखकर गंगा में बहते फूलों को
जब तुम ही नहीं हो अब सुनने को
अब अपाहिज हुए अनुभूत तथ्यों को
अंधेरे बंद कमरे में कल रात
बड़ी देर तक ठहर गई थी रात
अकुलाती, दर्द भरी, रतजगी
आस्था रह न गई
ख़्यालों के अनबूझे ब्रह्माण्ड में
छटपटाती छिपी हुई कोई गहरी पहचान
भोर से पहले रात की अंतिम-दम चीखें
अन्धकार भरे अम्बर में जीवन्त पीड़ा
ऐसे में हमारे निजी अनुभूत तथ्यों ने
लिख कर फ़ातिया मेरी छाती पर
कल रात के काले फैलाव में कर ली
ज़हर-जल पी कर आत्म-हत्या
कठिन
अधूरे हृदय-सम्बन्धों के उलझे प्रसंग
मार्मिक चोट का दिन-रात
दहला देता सहसा गंभीर आभास
विवेकी हृदय ने आज जला दी है अर्थी
मृत स्वरित संवेदन-तथ्यों की
आज ...
गंगा में बह रहे हैं फूल उन तथ्यों के
कुछ नहीं है अब
ईश्वर को कहने को
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-- विजय निकोर
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
रुकती नहीं गंगा न हमारा वज़ूद जो कि गंगा के सापेक्ष है. लेकिन जो पल-पल बदलता रहता है. इस हर पल बदलते वज़ूद को किस शिद्दत से शाब्दिक किया है आपने, आदरणीय विजत निकोर साहब !
वास्तव में एक अनुभव जी गया. सादर धन्यवाद इस भावदशा को साझा करने केलिए.
शुभ-शुभ
कठिन
अधूरे हृदय-सम्बन्धों के उलझे प्रसंग
मार्मिक चोट का दिन-रात
दहला देता सहसा गंभीर आभास
विवेकी हृदय ने आज जला दी है अर्थी
मृत स्वरित संवेदन-तथ्यों की
आज ...
गंगा में बह रहे हैं फूल उन तथ्यों के
कुछ नहीं है अब
ईश्वर को कहने को
आदरणीय विजय निकोर जी निःशब्द हूँ ऐसी भावपूर्ण रचना में निहित गहन भावों की अभियक्ति को पढ़कर , नमन आपकी लेखनी को।
आदरणीय बड़े भाई विजय निकोरे जी , बहुत मार्मिक भावों को समेटे आपकी इस रचना के लिये दिल से बधाइयाँ ।
बहुत सुन्दर ... सादर बधाई स्वीकारें आदरणीय सादर |
आ० निकोर सर जी, सादर प्रणाम.. आपने तो दुखती रग पर हाथ रख दिया....अतीव सुंदर रचना के लिये तहेदिल से बधाई स्वीकार करें. सादर
कठिन
अधूरे हृदय-सम्बन्धों के उलझे प्रसंग
मार्मिक चोट का दिन-रात
दहला देता सहसा गंभीर आभास
विवेकी हृदय ने आज जला दी है अर्थी
मृत स्वरित संवेदन-तथ्यों की
आज ...
गंगा में बह रहे हैं फूल उन तथ्यों के
कुछ नहीं है अब
ईश्वर को कहने को-----------------सचमुच कुछ नहीं है इन दैवीय भावों के प्रति कहने को . नमंन आदरणीय पितृवत . सादर
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