२१२२ २१२२ २१२२
फ़र्क करना है ज़रूरी इक नज़र में
बदतमीज़ों में तथा सुलझे मुखर में
शांति की वो बात करते घूमते हैं
किन्तु कुछ कहते नहीं अपने नगर में
शाम होते ही सदा वो सोचता है-
क्यों बदल जाता है सूरज दोपहर में
भूल जा संवेदना के बोल प्यारे
दौर अपना है तरक्की की लहर में
हो गया बाज़ार का ज्वर अब मियादी
और देहाती दवा है गाँव-घर में
आदमी तो हाशिये पर हाँफता है
वेलफेयर-योजनाएँ हैं ख़बर में
क्यों न फिर बरसात का मौसम मज़ा दे
चल रही जब नाव, काग़ज़ की, लहर में
पत्रकारों के बनाये राष्ट्र-नेता
बिक रहे अख़बार जैसे.. देश भर में
हँस रहा ’सौरभ’ अगर.. तो साथ हँसिये..
देखनी क्यों कील उसके पाँव-सर में ?
***************
(मौलिक और अप्रकाशित)
Comment
शुक्रिया आदरणीया राजेश कुमारी जी
आदरणीय सुशील सरना जी, आपसे मिली सराहना केलिए आपका सादर धन्यवाद.
प्रस्तुति को सराहने केलिए सादर आभार आदरणीय अशोक जी.
मोहतरम जनाब सौरभ साहिब , बहर रमल मुसद्दस सालिम में अच्छी ग़ज़ल , शेर दर शेर दाद और मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं --
शेर -२ के उला मिस रे पर एक बार नज़र डाल लीजिए --शुक्रिया
बहुत अंदर तक कचोटती ग़ज़ल है ..बधाई ..
.
एक शेर मेरी ओर से तोहफा समझ के स्वीकार कीजिये .
.
पीछे, घर बिकने को आमादा खडा है,
आगे, साहिब मस्त हैं,, अगले सफ़र में ...
आदरणीय सौरभ भाई , क्या कहने इस गज़ल के , वाह ! एक एक शेर सीधे दिल में उतर रहे हैं , सरल शब्दों मे खूबसूरत कहन का एक उदाहरण है , हम जैसे सीखने वालों के लिये ।
फ़र्क करना है ज़रूरी इक नज़र में -- वर्तमान के लिये बहुत ज़रूरी सबक
बदतमीज़ों में तथा सुलझे मुखर में
भूल जा संवेदना के बोल प्यारे ----- क्या बात है -- सौ टका सच
आदमी गढ़ने लगे हैं आज फरमें
ये दो शेर मेरे मन की बात कह रहे हैं ,
पत्रकारों के बनाये राष्ट्र-नेता
बिक रहे अख़बार जैसे.. देश भर में
हँस रहा ’सौरभ’ अगर.. तो साथ हँसिये..
देखनी क्यों कील उसके पाँव-सर में ? ---- वाह ! पूरी गज़ल ही कामयाब है , ये कुछ शे र मुझे बहुत पसंद आये , हार्दिक बधाइयाँ आपको ।
आ० सौरभ जी , बहरे रमल मुसद्दस सालिम में बड़ी खूबसूरत गजल प्रस्तुत की आपने . बेहतरीन मतला . कुछ अशआर बहुत उम्दा हैं -
भूल जा संवेदना के बोल प्यारे
आदमी गढ़ने लगे हैं आज फरमें
आदमी तो हाशिये पर हाँफता है
वेलफेयर-योजनाएँ हैं ख़बर में
क्यों न फिर बरसात का मौसम मज़ा दे
चल रही जब नाव, काग़ज़ की, लहर में
पत्रकारों के बनाये राष्ट्र-नेता
बिक रहे अख़बार जैसे.. देश भर में
हँस रहा ’सौरभ’ अगर.. तो साथ हँसिये..
देखनी क्यों कील उसके पाँव-सर में ?
क्यों न फिर बरसात का मौसम मज़ा दे
चल रही जब नाव, काग़ज़ की, लहर में ---क्या बात कही
पत्रकारों के बनाये राष्ट्र-नेता
बिक रहे अख़बार जैसे.. देश भर में ---वाह्ह्ह्हह वह्ह्ह
बहुत अच्छी ग़ज़ल कही है आद० सौरभ जी दाद लीजिये
क्यों न फिर बरसात का मौसम मज़ा दे
चल रही जब नाव, काग़ज़ की, लहर में
पत्रकारों के बनाये राष्ट्र-नेता
बिक रहे अख़बार जैसे.. देश भर में
हँस रहा ’सौरभ’ अगर.. तो साथ हँसिये..
देखनी क्यों कील उसके पाँव-सर में ?
नमन अपकी लेखनी को , नमन अपकी कल्पनाशीलता को अादरणीय सौरभ सर ... सच्चाई को उजागर करती अापकी इस दिलकश खूबसूरत ग़ज़ल के लिए दिल से शुक्रिया कबूल फरमाएं सर।
भूल जा संवेदना के बोल प्यारे
आदमी गढ़ने लगे हैं आज फरमें.........वाह ! सत्य कहा है आपने.
पत्रकारों के बनाये राष्ट्र-नेता
बिक रहे अख़बार जैसे.. देश भर में..........वाह ! बहुत खूब.
आदरणीय सौरभ जी सादर प्रणाम, बहुत खूबसूरत गजल कही है आज की हकीकतों को मुखर करते बढ़िया अशआर हुए हैं. मतले से ही गजल के तेवर दिखने लगते हैं. सादर.
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