2122 2122 2122 212
मौत है निष्ठूर निर्मम तो कड़ी है जिंदगी
जो ख़ुशी ही बाँटती हो तो भली है जिंदगी
लोग जीने के लिए हर रोज मरते जा रहे
ये सही है तो कहो क्या फिर यही है जिंदगी
दो निवालों के लिए दिनभर तपाया है बदन
या कि मानव व्यर्थ चाहत में तपी है जिंदगी
झूठ माया मोह रिश्ते सब सही लगते यहाँ
जाने कैसे चक्रव्यूहों में फँसी है जिंदगी
काठ का पलना कहीं तो खुद कहीं पर काठ है
है हँसी कोमल कहीं आँसू भरी है जिंदगी
चाँद भी रातों को रोशन कर चुका है तो कहो
किन उजालों के लिए तम से लड़ी है जिंदगी
आसमां के पार भी इक आसमां तैयार है
ख्वाब बुन लो तो चलो कहती रही है जिंदगी.
मौलिक/अप्रकाशित.
Comment
आदरणीय अजय कुमार शर्मा साहब आपको गजल पसंद आयी जानकर मुझे प्रसन्नता हुई. सादर आभार.
आदरनीय गिरिराज भंडारी साहब सादर, आपको गजल के अशआर अच्छे लगे मेरा रचना श्रम सार्थक हुआ. हार्दिक आभार. सादर.
आदरणीय श्री सुनील जी सादर, प्रस्तुत गजल पर उत्साहवर्धन के लिए आत्मीय आभार. सादर.
आदरनीय अशुक भाई , ज़िन्दगी की सच्छाइयाँ बयान करती आपकी गज़ल बहुत अच्छी लगी , दिल से बधाइयाँ आपको हरेक शे र के लिये ।
आदरणीय रामबली गुप्ता साहब सादर, प्रस्तुत गजल पर उतासाह्वर्धन के लिए आपका दिल से आभार. सादर.
आदरणीय महेंद्र कुमार साहब. बिलकुल स्पष्ट हुआ. हार्दिक आभार आपका इस बारीकी से परिचित करवाने के लिए. सादर.
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