1212 1122 1212 112/22
बह्र –मुजतस मुसम्मन मख्बून मक्सूर
तनाव से ही सदा टूटता समाज कोई
लगाव से ही सदा फूलता रिवाज कोई
पढ़ेगी कल नई पीढ़ी उन्हीं के सफ्हों को
क़िताब ख़ास लिखी जाएगी जो आज कोई
न ख़्वाब हो सकें पूरे कहीं बिना दौलत
बना सकी न मुहब्बत गरीब ताज कोई
सियासतों में बगावत नई नहीं यारों
कभी चला कहाँ आसान राजकाज कोई
सभी मिलेंगे यहाँ छोड़कर शरीफों को
कोई फरेबी यहाँ और चालबाज कोई
नचा रहे सभी एक दूसरे को यहाँ
बजा रहा कोई ढपली कहीं पे साज कोई
पँहुचते ही नहीं पैसे गरीब तक पूरे
कमाई ले उड़े जब बीच में ही बाज़ कोई
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आद० सतविन्द्र भैया ,आपका तहे दिल से बहुत बहुत शुक्रिया |
आ० शिज्जू भैया ,आपका बहुत- बहुत आभार उन्हें ठीक कर लूँगी सफहों शब्द ज्यादा सटीक होगा |
आद० श्याम नारायण वर्मा जी ,आपका अतिशय आभार |
आद० समर भाई जी ,आपको ग़ज़ल पसंद आई मेरा लेखन सार्थक हो गया| आपकी इस्स्लाह सर आँखों पर मैं वरक का बहु वचन वर्कों अर्थात २२ ले लिया जबकि ११२ होना चाहिए ...मेरी गलती है इसे सफहों कर लूँगी | आपने सही कहा भाई जी छाते शेर के उला में हैं न जाने कैसे रह गया पोस्ट करने से पहले कई बार पढ़ी भी | मूल पोस्ट में सुधार कर लिया है इधर भी कर लूँगी |
बेहद उम्दा ...बहुत बहुत बधाई आप को | सादर
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