आकर साजन तू ही ले जा क्यूँ ये सावन ले जाए
अधरों पर छायी मस्ती ये क्यूँ अपनापन ले जाए
भिगो रहा है बरस-बरस कर मेघ नशीला ये काला
कहीं न ये यौवन की खुश्बू मन का चन्दन ले जाए
कड़क-गरज डरपाती बिजली पल-पल नभ में दौड़ रही
कहीं न ये चितवन के सपने संचित कुंदन ले जाए
बिंदी की ये जगमग-जगमग खनखन मेरी चूड़ी की,
बूँदों की ये रिमझिम टपटप छनछन-छनछन ले जाए
पुहुप बढाते दिल की धड़कन शाखें नम कर डोल रहीं
कहीं न अब अँगड़ाई का फन भीगा कानन ले जाए
बढ़ी जा रही भीग-भीगकर चिकुर जाल की ये उलझन
कुन्तल से हरियाला तरुवर हर्षित उपवन ले जाए
रुनझुन-रुनझुन करती पायल बिछिया से कह आयी है
सारे बंधन तोड़ सखी अब मन उस आँगन ले जाए.
मौलिक/अप्रकाशित.
Comment
उतासावर्धन के लिए सादर आभार आदरणीय रामबली गुप्ता जी.
आदरणीय समर कबीर साहब सादर नमस्कार, प्रस्तुत गीतिका पर आपसे तारीफ़ पाकर मन को बहुत संतोष हुआ. आपका दिल से आभार.सादर.
आदरणीय सतविन्द्र कुमार जी सादर,प्रस्तुति आपको आनंदित कर सकी, मेरी रचना सार्थक हुई.सादर आभार.
आदरणीय सुशील सरना साहब सादर, प्रस्तुत गीतिका आपको अच्छी लगी मेरी रचना सफल हुई. सादर आभार.
रुनझुन-रुनझुन करती पायल बिछुओं से कह आयी है
सारे बंधन तोड़ सखी अब मन उस आँगन ले जाए.
वाह आदरणीय रक्ताले साहिब मौसम के अनुरूप बहुत ही सुंदर गीतिका का सृजन हुआ है , हार्दिक बधाई स्वीकार करें।
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