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वाह आदरणीय सतविंदर भैया , छंद का ज्ञान तो नहीं पर पढ़कर अच्छा लगा | बधाई स्वीकारें |
आदरणीय सतविन्द्र जी, छन्दों को लेकर आपकी लगन को देख हम सभी अभिभूत हैं. हार्दिक शुभकामनाएँ.
आदरणीय अशोक भाईजी ने सम्यक सुझाव दिये हैं. उअकी सलाह पर आप अवश्य ध्यान देंगे. इसका पूरा विश्वास है. एक-दो प्रथम दृष्ट्या जो कुछ मुझे दीख पड़ा, वो आपसे साझा कर रहा हूँ.
सुधा सही वर्तनी (अक्षरी) है, न कि शुधा. दूसरे गुरु सही वर्तनी है न कि गुरू. अर्थात, गुरु दो मात्राओं का शब्द है, न कि तीन मात्राओं का.
ये तो वर्तनी और मात्रा सम्बन्धी बातें हुई. मैं जिस ओर आप और गुणीजनों का ध्यान खींचना चाहता हूँ, वह छन्द और उसकी प्रकृति सम्बन्धी है.
आल्हा छन्द मुखय्तः वीररस के लिए प्रयुक्त होने वाला छन्द है. मात्रिकता के हिसाब से तो कोई छन्द किसी भी भाव के शाब्दिक होने का कारण बन सकता है. परन्तु, आल्हा का यह नैसर्गिक गुण है कि वह अतिशयोक्तिपूर्ण भावों का वाहक होता है. आल्हा छन्द के लिए यह विशेष तौर पर कहा गया है कि अतिरेकपूर्ण कथ्य और अतिरंजना के भाव अवश्य संप्रेषित हों, ताकि सुनकर भुजाओं में बिजलियाँ कड़क उठें. इसी कारण युद्ध आदि के वर्णन इस छन्द के माध्यम से अभिव्यक्त होते हैं. या, वो कथ्य जिनसे उत्साह जगाने का काम लिया जा सके. आल्हा छन्द का ही दूसरा नाम वीर छन्द भी है. अब आप समझ सकते हैं कि मैं क्या कहना चाहता हूँ.
ऐसे छन्द के माध्यम से गुरु महिमा की सात्विकता का बखान उचित प्रतीत नहीं होता. छन्द की प्रकृति भी प्रभावित होती है.
आपके प्रयास में कोई कमी नहीं है. लेकिन मेरा निवेदन इतना ही है कि कथ्य और विषय छन्द के अनुरूप नहीं हुआ है.
हार्दिक शुभकामनाएँ .
आदरणीय सतविन्द्र भाई , सही समय मे सही प्रस्तुति के लिये आपको हार्दिक बधाइयाँ । छंद शिल्प का ज्ञान मुझे नही है । वैसे आदरनीय अशोक भाई आपको कुछ सलाह दे ही चुके हैं । खयाल कीजियेगा ।
अब लगता है नहीं रुकेगा,थक कर मन का रचनाकार............बिलकुल रुकना भी नहीं चाहिए.
आदरणीय सतविन्द्र कुमार जी सादर, बहुत सुंदर आल्हा रचा है.बहुत-बहुत बधाई स्वीकारें. एक दो जगह ध्यान देने की आवश्यकता है.
अज्ञान तम अब अंतर्ध्यान ......मात्राएँ जांच लें.
बिन पथ मेहनत व्यर्थ जाती.....यहाँ गेयता नहीं बन रही है मेहनत की जगह श्रम शब्द ले-लें. सादर.
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