गुड़ मिला पानी पिला महमान को
2122 2122 212
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तब नज़र इतनी कहाँ बे ख़्वाब थी
और ऐसी भी नहीं बे आब थी
नेकियाँ जाने कहाँ पर छिप गईं
इस क़दर उनकी बदी में ताब थी
गैर मुमकिन है अँधेरा वो करे
बिंत जो कल तक यहाँ महताब थी
बे यक़ीनी से ज़ुदा कुछ बात कह
ठीक है, चाहत ज़रा बेताब थी
डिबरियों की रोशनी, पग डंडियाँ
थीं मगर , बस्ती बड़ी शादाब थी
शादाब- हराभरी,खुश
गुड़ मिला पानी पिला महमान को
उस तमद्दुन की अदा नायाब थी
तमद्दुन --आचार विचार,संस्कृति
अब धुएँ से भर गई है जो फ़ज़ा
थी जिया उसमें , कभी सीमाब थी
सीमाब - पारा ( जैसे चमकीला )
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
आदरणीय तस्दीक भाई , हौसला अफज़ाई का तहे दिल से शुक्रिया ।
नेकियाँ जाने कहाँ पर छिप गईं
इस क़दर उनकी बदी में ताब थी---वाह्ह्ह बहुत खूब
सुन्दर ग़ज़ल हुई है आद० गिरिराज जी दिल से बधाई लीजिये
अब धुएँ से भर गई है जो फ़ज़ा
थी जिया उसमें , कभी सीमाब थी---इक समय उसमे ज़िया सीमाब थी ...ऐसा करें तो कैसा लगेगा दो जगह थी खल रहा है
मोहतरम जनाब गिरिराज साहिब , अच्छी ग़ज़ल हुई है शेर दर शेर दाद और मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं
आदरणीय समर भाई, उस शे र को अब यूँ कहा है देखियेगा अब सही हुआ क्या ?
गैर मुमकिन है अँधेरा वो करे
बिंत जो कल तक यहाँ महताब थी
आदरनीय समर भाई , गज़ल पर उपस्थिति और सराहना के लिये आपक ह्र्दय से अभार । आपकी सलाह उचित है , मै आपके कथनानुसार सुधार कर रहा हूँ , आपक ह्र्दय से आभार ।
गैर मुमकिन है अँधेरा वो करे
इस ज़मीं की जो कभी महताब थी --- इस शे र मे मेरा इशारा इस तरफ है , कि जब लड़की हमारे यहाँ थी तो महताब की तरह उजाला कर रही थी तो वही लड़की वहाँ अंधेरा फैला रही है ये बात मुमकिन नही है । अब आप सला दें के क्या किया जाये ? क्या राबता मे कमी है ?
आदरणीय विजय शंकर भाई , ग़ज़ल पर उपस्थिति और उत्साह वर्धन के लिये आपका ह्र्दय से आभार ।
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