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आस और प्यास (लघुकथा) /शेख़ शहज़ाद उस्मानी

बात सिर्फ सूटकेस और नये कपड़े ख़रीदने की ही नहीं थी। हर बार मायके अकेले ही भेजना और भेजते समय बहस करना और लाड़ली बिटिया को देख-देख कर आंसू बहाना पत्नी को आज फिर अच्छा नहीं लग रहा था, सो मुँह फेर कर थोड़ी दूर बैठ गई।

"अब टसुये मत बहाओ, ये बताओ कि अबकी बार कितने दिन ज़ुल्म करोगी मुझ पर? मैं नहीं आऊँगा लेने, समझ लेना, जैसे जा रही हो, वैसे ही ज़ल्दी लौटना! भाईयों के अहसान मत लादना मुझ पर, समझीं!"- एक सांस में उसने अपने पुराने वाले संवाद बोल डाले, फिर नन्ही सी बिटिया को उसके कंधे से छीन कर चूमने लगा।

"बच्ची को इतना चाहते हो, तो साथ में क्यों नहीं चलते?" -आँसू पोंछते हुए वह अपने पति से बोली।

"तो नौकरी तुम्हारा बाप करेगा क्या, या वो छुट्टी दिलायेगा मुझे?" -बिटिया को पत्नी की गोदी में रखते हुए उसने कहा- "मेरी नहीं इतनी हैसियत कि बार-बार तुम्हें मायके भेज सकूँ और झूठी शान के लिए सामान ख़रीद कर दूँ! समझा देना मायके वालों को!" -इस बार पत्नी के नज़दीक़ आकर धीमे स्वर में उसने कहा ताकि बस स्टैंड के प्रतीक्षालय में बैठे अन्य यात्री कुछ न सुन पायें।

तभी बस आ गई। अपना झोला और पोटली वग़ैरह उठाकर वह पति से बोली- "अपना ख़्याल रखना।"

"हाँ हाँ, ठीक है! तुम बच्ची का ख़्याल रखना। अगले हफ़्ते सरकारी अस्पताल जाकर वो अगला वाला टीका लगवा देना बच्ची को! तेरे मायके वाले पिछड़े ख़्यालात के हैं, कोई ग़लती मत करना।" - इतना कहकर फिर से उसने बच्ची को प्यार से चूमा और कहा- "देख लड़की है तो क्या हुआ, अपना हीरा है हीरा, दूजा बच्चा नहीं आने दूंगा, नहीं है मेरी हैसियत!"

इतना सुनते हुए अपना कमज़ोर शरीर लिए वह बस पर चढ़ तो गई, लेकिन पति की ओर देखती रही, इस उम्मीद में कि वह दो शब्द उसके लिए भी बोलेगा।

[मौलिक व अप्रकाशित]

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Comment by Sheikh Shahzad Usmani on August 31, 2016 at 8:39pm
मेरी अभ्यास रचना पर गहराई से नज़र डालते हुए अपने विचार साझा करने व स्नेहिल हौसला अफ़ज़ाई हेतु तहे दिल से बहुत बहुत शुक्रिया मोहतरमा प्रतिभा पाण्डेय साहिबा।
Comment by Sheikh Shahzad Usmani on August 31, 2016 at 6:34pm
मेरे प्रिय महान कवियों में से राष्ट्र कवि मैथिलीशरण गुप्त जी की पंक्तियों को पुनः यूँ याद कराकर रचना का अनुमोदन करने व स्नेहिल हौसला अफ़ज़ाई हेतु तहे दिल से बहुत बहुत शुक्रिया मोहतरम जनाब डॉ. गोपाल नारायण श्रीवास्तव जी।
Comment by Sheikh Shahzad Usmani on August 31, 2016 at 6:30pm
बहुत बहुत शुक्रिया मोहतरम जनाब समर कबीर साहब आपके अनुमोदन व प्रोत्साहक टिप्पणी के लिए।
Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on August 30, 2016 at 8:45pm

आ० शेख साहिब , बड़ी मार्मिक कथा कही आपने . मैथिलीशरण  जी  की काव्य पंक्ति उभर आयी -अबला जीवन हाय ! तुम्हारी यही कहानी . आँचल में है दूध और आँखों में पानी .

Comment by Sheikh Shahzad Usmani on August 30, 2016 at 6:25pm
अपने विचारों द्वारा रचना का अनुमोदन करने व स्नेहिल हौसला अफ़ज़ाई हेतु तहे दिल से बहुत बहुत शुक्रिया मोहतरमा राजेश कुमारी साहिबा।
Comment by Sheikh Shahzad Usmani on August 30, 2016 at 3:23pm
मेरी इस ब्लोग पोस्ट का अनुमोदन करने व स्नेहिल हौसला अफ़ज़ाई हेतु तहे दिल से बहुत बहुत शुक्रिया मोहतरमा राहिला जी।
Comment by pratibha pande on August 29, 2016 at 9:13am

आपकी ये रचना नायक की शख्सियत के दो पक्ष खोल रही है  पहला बच्ची को प्यार करने वाला पिता और दूसरा बेरूखी से भरा पति , दोनों ही पक्षों का चित्रण आपने बखूबी किया  है ...  बधाई स्वीकार करें इस सशक्त प्रस्तुति पर आदरणीय  उस्मानी जी 

Comment by Samar kabeer on August 28, 2016 at 2:32pm
जनाब शैख़ शहज़ाद उस्मानी जी आदाब,आपकी लघुकथा पढ़ने वाले को दावत-ए-फ़िक्र देती है, बहुत ख़ूब वाह, इस शानदार प्रस्तुति पर दिल से बधाई स्वीकार करें ।

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Comment by rajesh kumari on August 28, 2016 at 12:24pm

क्या  फ़र्क है  इक  शजर  में और एक स्त्री  में फल से  तो प्यार होता है और शजर को पत्थर मिलते हैं ..इस लघु कथा को पढ़कर यही एहसास हुआ जिस बेटी को उसने पैदा किया उसका बहुत ख़याल है मगर उससे ? सोचने पर विवश करती लघु कथा |

बहुत बहुत बधाई इस उम्दा प्रस्तुति पर |आद० उस्मानी जी 

Comment by Rahila on August 28, 2016 at 11:15am
बहुत खूबसूरत रचना आदरणीय उस्मानी जी!दो बोल अपने लिए सुनने को तरसती औरत का खूब चित्रण किया आपने ।सादर

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