रिश्तों के सीनों में ......
कितनी सीलन है
रिश्तों की इन क़बाओं में
सिसकियाँ
अपने दर्द के साथ
बेनूर बियाबाँ में
कहकहों के लिबासों में
रक़्स करती हैं
न जाने
कितने समझौतों के पैबंदों से
सांसें अपने तन को सजाये
जीने की
नाकाम कोशिश करती हैं
ये कैसी लहद है
जहां रिश्ते
ज़िस्म के साथ
ज़मीदोज़ होकर भी
धुंआ धुंआ होती ज़िन्दगी के साथ
अपने ज़िन्दा होने का
अहसास देते हैं
घुटते हैं
फिर भी आवाज़ देते हैं
ए अजल !
ज़िस्म को तू
बेआवाज़ कर देती है
हर दर्द का
इंसाफ़ कर देती है
फिर क्यूँ छोड़ देती है
अपने पीछे
पारा पारा* होते *(पारा पारा =टुकड़ा टुकड़ा )
रिश्तों के सीनों में
ज़ख्मों को
ज़िंदगीभर
रिसने के लिए
सुशील सरना
मौलिक एवम अप्रकाशित
Comment
आदरणीया कांता रॉय जी प्रस्तुति को इतनी आत्मीयता से सराहने के लिए आपका तहे दिल से शुक्रिया। सृजन आपके इस मान से उपकृत हुआ।
आद. Alka Changa जी प्रस्तुति पर आपकी आत्मीय सराहना का तहे दिल से शुक्रिया।
सुन्दर कविता
आदरणीय Tasdiq Ahmed Khan साहिब सृजन को अपनी आत्मीय प्रशंसा से अलंकृत करने के लिए तहे दिल से शुक्रिया।
आदरणीय समर कबीर साहिब प्रस्तुति की अपने शीरीं लफ़्ज़ों से ताज़पोशी करने का दिल की गहराईयों से शुक्रिया। आपका प्रोत्साहन सदा बन्दे को नए सृजन के लिए उत्साहित करता है। हार्दिक हार्दिक आभार।
मोहतरम सुशील सरना साहिब , दिल की गहराईयों में अपना असर छोड़ती सुन्दर कविता के लिए मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं
आदरणीय गिरिराज जी भाई साहिब प्रस्तुति पर आपकी आत्मीय सराहना का तहे दिल से शुक्रिया।
बहुत खूब ! आदरनीय सुशील भाई बहुत अच्छी लगी आपकी कविता । हार्दिक बधाइयाँ ।
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