एक चुप्पी इधर,एक चुप्पी उधर भी
चुप रहने का यह क्षण,दरअसल शोर था
झंझावात था
आमादा था निगलने पर
रिश्ते को रिश्ते के साथ ,जो आस्तित्वहीन था
उस आस्तित्वहीन की गर्माहट
धूप में चमकते,ताजमहल -सा तप्त था
दिल, दिमाग,नजर और मन
छा कर बियाबानों के सन्नाटो में
प्रपंचों के मायाजाल को,चीर ,ध्वस्त कर
लॉन के मखमली घास पर फैल
नर्म नर्म कोमल,रेंगती हुई सर्द सी चुप्पी अब
धीरे से करवट बदल रही थी
शोर में लिप्त, पगली-सी चुप्पी
हैरान हो कई कोणों से
स्वंय को घूरती नजर आती है
चुप की भट्ठी में, जल कर तृप्त हो
निशब्दता की तलाश में
शोर के खिलाफ बहुत दूर
निकल जाने को बेकल है
विवशता ने, घेरे में जकड़ लिया है
इस बार चुप्पी, हाथ नहीं लगने वाली
उसने भी नया घर,तलाश लिया है
अंगुलियों ने अंगुलियों से,अनुबंध कर
बाजुओं ने हासिल किया
अपनी आगोश में ताजमहल को
अबकी चुप्पी ने, मुड़कर नहीं देखा
कनखियों ने देखा कनखियों को, और हँसी पर जमकर हँसता रहा।
मौलिक और अप्रकाशित
Comment
शोर में लिप्त, पगली-सी चुप्पी
हैरान हो कई कोणों से
स्वंय को घूरती नजर आती है
वाह आदरणीया कांता रॉय जी कितने खूबसूरत लफ़्ज़ों में आपने चुप्पी के अहसासों को जिया है। महसूस करना अलग बात है मगर अहसासों को लफ़्ज़ों में बांधना आसां नहीं होता। इस अंतर्द्वंद से भरी चुप्पी की प्रस्तुति पर बन्दे की हार्दिक बधाई स्वीकार करें।
विवशता ने, घेरे में जकड़ लिया है
इस बार चुप्पी, हाथ नहीं लगने वाली
उसने भी नया घर,तलाश लिया है .....चुप्पी पर खूब बोली हैं और क्या खूब बोली है आप...हार्दिक बधाईप्रेषित है आदरणीया कांता जी
अंतिम पंक्ति कुछ अस्पष्ट है, जम कर कौन हंसता रहा ..यहाँ शायद बाजू की बात हो रही है ....
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