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अब नहीं मेरे गांव में(छंदमुक्त चतुष्पदी कविता)

वो बगिया पनघट शीतल-अब नहीं मेरे गाँव में।
बुढ़ा बरगद झूमता पीपल-अब नहीं मेरे गाँव में।
परोसा करते थें तृप्त भोजन पानी जो आतिथ्य में,
वो बर्तन कांसे और पीतल-अब नहीं मेरे गाँव में।
-----
भाभी पानी छिट जगाती-अब नहीं मेरे गाँव में
लचका लोरी सोहर गाती-अब नहीं मेरे गाँव में
चाची भाभी बहना को पिछड़ा ये सब लगता है
हँसुली विछुआ झांझ भाती-अब नहीं मेरे गाँव में
-------
फाग चैत की राग गूंजता-अब नहीं मेरे गाँव में
बैल अकड़ ट्रैक्टर से जूझता-अब नहीं मेरे गाँव में
क्या चाचा किसानी करतें बिज खाद महंगा बहुत
कृषि में कुछ अक्ल सुझता-अब नहीं मेरे गाँव में
-------
मीठे गुड़ की लकठो जलेबी-अब नहीं मेरे गाँव में
दादी के कुर्ते की जेबी-अब नहीं मेरे गाँव में।
चलती दबंगों की दबंगई सहमी है इंसानियत
दंडित होता रहता फरेबी-अब नहीं मेरे गाँव में
-------
खेले बहना चिक्का गोटी-अब नहीं मेरे गाँव में
बांधती एक दूजे की चोटी-अब नहीं मेरे गाँव में
भाई बापू शहर कमायें सकल जवानी गुजर गई
आँख अम्मा की चुपके रोती-अब नहीं मेरे गाँव में
--------
धोती कुर्ता कांध पर लाठी-अब नहीं मेरे गाँव में
बाँस पटुआ की बुनी खाटी-अब नहीं मेरे गाँव में
नशा जुआ कुंठा ग्रसित थम गई अब युवा जवानी
पहलवानी जांघ की चाटी-अब नहीं मेरे गाँव में।
--------
मोर पपीहा कोयल की ठौर-अब नहीं मेरे गाँव में
भूख तड़फे,मुख को कौर-अब नहीं मेरे गाँव में
कविता गहि गहि खूब सुनाये ले सबका आशीष
बना सुनील कवि सिरमौर-अब नहीं मेरे गाँव में।
अब नहीं मेरे गाँव में-अब नहीं मेरे गाँव में....
________________________________________
मौलिक एवं अप्रकाशित रचना
सुनील प्रसाद शाहाबादी।

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Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on October 12, 2016 at 9:59pm
आदरणीय बहुत सुंदर सार्थक रचना  हार्दिक बधाई ।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on October 12, 2016 at 9:51pm

गाँव की विलुप्त होती संस्कृति वहाँ भी शहरवाद हावी हो रहा है वो बात अब कहाँ बचपन की याद दिलाती गाँव में असली भारत के दर्शन कराती इस उम्दा प्रस्तुति के लिए दिल से ढेर सारी बधाई एवं शुभकामनाएँ आद०  सुनील प्रसाद जी |

Comment by सुनील प्रसाद(शाहाबादी) on September 30, 2016 at 9:55am
सादर आभार आदरणीय सुरेश कुमार कल्याण जी आपकी स्नेहसिक्त टिपण्णी से लेखनी कृतार्थ हुई।
Comment by सुरेश कुमार 'कल्याण' on September 27, 2016 at 10:21am
आदरणीय श्री सुनील प्रसाद जी लुप्त होती संस्कृति को बहुत ही खूबसूरती से पेश किया है आपने । हार्दिक बधाई ।
Comment by सुनील प्रसाद(शाहाबादी) on September 27, 2016 at 7:19am
तहे दिल शुक्रिया जनाब समीर कबीर जी हौसला इजाफत के लिए
Comment by Samar kabeer on September 26, 2016 at 11:32pm
जनाब सुनील प्रसाद जी आदाब,बहुत उम्दा लगी आपकी कविता,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
Comment by सुनील प्रसाद(शाहाबादी) on September 26, 2016 at 8:52pm
बेहद शुक्रिया जनाब शिज्जु शकूर साहिब हौसला अफजाई के लिए।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on September 26, 2016 at 3:33pm

अच्छा  लिखा है आ. सुनील प्रसाद जी

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