221 2121 1221 212/2121
पर्दा जो उठ गया तो हुआ काला धन तमाम
चोरों की ख्वाहिशों के जले तन बदन तमाम
बरसों से जो महकते रहे भ्रष्ट इत्र से
इक घाट पे धुले वो सभी पैरहन तमाम
बावक्त असलियत का मुखौटा उतर गया
किरदार का वजूद हुआ दफ़अतन तमाम
ये बंद खिड़कियाँ जो खुली, पस्त हो गई
सब झूट औ फरेब की बदबू घुटन तमाम
परवाज पर लगाम जो माली ने डाल दी
भँवरे का हो गया वो तभी बाँकपन तमाम
ईलाज में दवाएँ भी नाकाम हो रही
ईमान की खुराक से सुधरे वतन तमाम
जादू न जाने क्या था मदारी के खेल में
बेहोश इक नजर में हुई अंजुमन तमाम
----मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
मुहतरम जनाब मिथिलेश साहिब , आप सही कह रहे हैं , मिसरा बहर में है लेकिन" और "करने से
मिसरा सुन्दर लग रहा है ----सादर
आदरणीया राजेश कुमारी जी ,अच्छी ग़ज़ल हुई है , मुबारकबाद क़ुबूल करें |
मुहतरमा राजेश कुमारी साहिबा ,अच्छी तरही ग़ज़ल हुई है , दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं
शेर 4 के सानी मिसरे में " झूट औ फरेब " को" झूट और फरेब " करने से लय और बहर बनी रहेगी
देख लीजियेगा ---शेर 6 के सानी मिसरे में सही शब्द इलाज है " ईलाज " नहीं , मुनासिब समझें तो इसकी
जगह " तदबीर " करलें तो मिसरा बहर में हो जायेगा -----सादर
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