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ग़ज़ल - हो सके तो ऐ ख़ुदा एहसान कर

2122 2122 212

मौत का मेरे नया फरमान कर ।
हो सके तो ऐ खुदा एहसान कर ।।

जिंदगी तो काट दी मुश्किल में, अब
रास्ता जन्नत का तो आसान कर ।।

जी रहा है आदमी किस्तों में अब ।
धड़कनो की बन्द यह दूकान कर ।।

टूट जाती हैं उमीदें सांस की।।
खत्म तू बाकी बचा अरमान कर ।।

हसरतें सब बेवफा सी हो गईं ।
आसुओं के दौर से अनजान कर ।।

हार जाता है यहां हर आदमी।
क्या करूँगा मौत को पहचान कर ।।

है गरीबी से मेरा रिश्ता बहुत ।
बेबसी का मत मेरी अपमान कर ।।

फूट कर वो रात भर रोता रहा ।
क्यूँ बहुत खामोश है सब जानकर ।।

जब अँधेरे ही मेरी किस्मत में हैं ।
रौशनी से मत खड़ा तूफ़ान कर ।।

-- नवीन
मौलिक अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Naveen Mani Tripathi on December 15, 2016 at 12:00am
आ0 सुशील सरन सर तहे दिल से शुक्रिया ।
Comment by Naveen Mani Tripathi on December 14, 2016 at 11:59pm
आ0 कबीर सर सादर नमन ।
Comment by Naveen Mani Tripathi on December 14, 2016 at 11:58pm
आ0 तस्दीक़ अहमद खान साहब सुन्दर सुझाव हेतु आभार ।
Comment by Naveen Mani Tripathi on December 14, 2016 at 11:56pm
आ0 मिथिलेश वामनकर साहब तहे दिल से शुक्रिया
Comment by Naveen Mani Tripathi on December 14, 2016 at 11:55pm
आ0 रवि शुक्ला साहब आपके सुन्दर सुझाव का स्वागत है सर । विशेष आभार ।
Comment by Ravi Shukla on December 14, 2016 at 1:36pm

आदरणीय नवीन मणि जी सुन्‍दर गजल कही है आपने बधाई कुबूल करें  

मतले के उला पर एक किंचित सा सुझााव है यदि उचित लगे तो द‍ेखियेगा 

मौत का जारी कोई फरमान कर 

हो सके तो ए खुदा अहसान कर   सादर 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on December 14, 2016 at 12:43am

आदरणीय नवीन मणि त्रिपाठी जी, बढ़िया ग़ज़ल कही है आपने, दाद ओ मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं. सादर 

Comment by Tasdiq Ahmed Khan on December 13, 2016 at 10:09pm

मुहतरम जनाब नवीन मणि साहिब , सुन्दर ग़ज़ल हुई है , मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं --
शेर 3 के सानी मिसरे में क़ाफ़िया आपने " दूकान " लिया है जबकि सही शब्द " दुक्कान "
है , इसे लेने पर मिसरा बहर में रहेगा , देख लीजियेगा ---

Comment by Samar kabeer on December 13, 2016 at 8:13pm
जनाब नवीन मणि त्रिपाठी जी आदाब,अच्छी ग़ज़ल हुई है,दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं ।
Comment by Sushil Sarna on December 13, 2016 at 8:09pm

हार जाता है यहां हर आदमी।
क्या करूँगा मौत को पहचान कर ।।

वाह आदरणीय शानदार और दमदार अशआर ... वाह बहुत खूब हुई है आपकी ग़ज़ल। इस दिलकश ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई।

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