2122 2122 212
मौत का मेरे नया फरमान कर ।
हो सके तो ऐ खुदा एहसान कर ।।
जिंदगी तो काट दी मुश्किल में, अब
रास्ता जन्नत का तो आसान कर ।।
जी रहा है आदमी किस्तों में अब ।
धड़कनो की बन्द यह दूकान कर ।।
टूट जाती हैं उमीदें सांस की।।
खत्म तू बाकी बचा अरमान कर ।।
हसरतें सब बेवफा सी हो गईं ।
आसुओं के दौर से अनजान कर ।।
हार जाता है यहां हर आदमी।
क्या करूँगा मौत को पहचान कर ।।
है गरीबी से मेरा रिश्ता बहुत ।
बेबसी का मत मेरी अपमान कर ।।
फूट कर वो रात भर रोता रहा ।
क्यूँ बहुत खामोश है सब जानकर ।।
जब अँधेरे ही मेरी किस्मत में हैं ।
रौशनी से मत खड़ा तूफ़ान कर ।।
-- नवीन
मौलिक अप्रकाशित
Comment
आदरणीय नवीन मणि जी सुन्दर गजल कही है आपने बधाई कुबूल करें
मतले के उला पर एक किंचित सा सुझााव है यदि उचित लगे तो देखियेगा
मौत का जारी कोई फरमान कर
हो सके तो ए खुदा अहसान कर सादर
आदरणीय नवीन मणि त्रिपाठी जी, बढ़िया ग़ज़ल कही है आपने, दाद ओ मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं. सादर
मुहतरम जनाब नवीन मणि साहिब , सुन्दर ग़ज़ल हुई है , मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं --
शेर 3 के सानी मिसरे में क़ाफ़िया आपने " दूकान " लिया है जबकि सही शब्द " दुक्कान "
है , इसे लेने पर मिसरा बहर में रहेगा , देख लीजियेगा ---
हार जाता है यहां हर आदमी।
क्या करूँगा मौत को पहचान कर ।।
वाह आदरणीय शानदार और दमदार अशआर ... वाह बहुत खूब हुई है आपकी ग़ज़ल। इस दिलकश ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई।
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