मैं भुला देना चाहता हूँ
झिलमिल सितारों को
झूमती बहारों को
सावन के झूलों को
महकते हुए फूलों को
मौसमी वादों को
पक्के इरादों को
नर्म एहसासों को
बहके जज़्बातों को
सोंधी सी ख़ुशबू को
कोयल की कू को
नाचते हुए मोर को
नदियों के शोर को
चाँदनी रातों को
मीठी-मीठी बातों को
दरख़्तों पे लिखे नाम को
सुहानी सी शाम को
हवाओं की अठखेलियों को
बारिश की सहेलियों को
खायी हुई कसमों को
प्यार भरे नग़मों को
चमकते आफ़ताब को
मुस्कुराते माहताब को
ग़ज़ल की किताब को
उसमें रखे गुलाब को
और...
अपने हर उस ख़्वाब को
जो मैंने तुम्हारे
साथ देखा था!
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
बहुत बढ़िया,
एक और निवेदन- मंच पर आपकी सशक्त रचनाएँ देखी है. इसलिए आपने और बेहतर की उम्मीद रहती है. सादर
प्रिय महेंद्र जी , आ० समर कबीर साहिब और आ० मिथिलेश जी ने जो खुलकर नहीं कहा , मैं कहता हूँ . इतनी कोमल कविता की ह्त्या उचित नहीं . आप इस तरह कह सकते हैं -
मैं भुला देना चाहता हूँ
हर अहसास
झिलमिल सितारों का ----- आदि आदि . परिगणन शैली का बड़ा मोहक उदाहरण आपने अपनी कविता में प्रस्तुत किया है . सस्नेह .
आदरणीय महेन्द्र जी, आपने हत्याओं का बड़ा मामला बना दिया. बहरहाल इस प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई. सादर
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