For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

नई सुबह की आहट....//डॉ० प्राची सिंह

बुलबुल ने छोड़ा पंखों पर
अब बोझा ढोना,
नई सुबह की आहट अब
तुम भी पहचानो ना....

अंतर्मन में गूँजी जबसे
सपनों की सरगम,
अपने रिसते ज़ख्मों पर रख
हिम्मत का मरहम,

झूठे बंधन तोड़ निकलना
सीख चुकी है वो,
बाहों में भर लेगी अम्बर
चाहे जो भी हो,

रहने देगी नहीं अनछुआ
कोई भी कोना....
नई सुबह की आहट अब
तुम भी पहचानो ना....

क्यों बाँधे उसके पल्लू में
बस भीगे सावन,
भर लेना है हर मौसम से
अब उसको दामन,

खोलो खिड़की ज़रा हवाऐं
अंदर तो आऐं,
उजली किरणों से सीलन की
नींदें खुल जाऐं,

मन के आँगन में चिंतन के
बीजों को बोना...
नई सुबह की आहट अब
तुम भी पहचानो ना....

मौलिक और अप्रकाशित

Views: 1110

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on February 12, 2017 at 10:39pm

आदरणीया प्राची जी, भँवर की गति की क्षैतिज दिशा नहीं होती. किन्तु, उनमें अकूत बल होता है. उन्हें निस्तार मिलना ही किसी नदी के लिए सार्थक जीवन मिलना होता है. आपके प्रस्तुत प्रयास में अदम्य आवेगशील भँवर को मानो सदिश प्रवाह का क्षैतिज विस्तार मिला है. इस सोच को व्यापक होना ही चाहिए. ऐसे में इस सोच को गीत-विधा में प्रस्तुत करना श्लाघनीय है. आपका हार्दिक धन्यवाद.

किन्तु, साथ ही, गीत के भावपक्ष की अभिव्यक्ति के समानान्तर तार्किकता को साधना शिल्प-पक्ष को साधने से अधिक गहन और आवश्यक हो जाता है. जहाँ रचनाकर्म के परिप्रेक्ष्य में शिल्प पक्ष को साधना रचना-प्रक्रिया का प्रस्थान विन्दु है, जिसके बिना रचनाएँ सार्थक संज्ञा पा ही नहीं सकतीं, भाव पक्ष की साधना रचना-प्रक्रिया के लिए तपस-प्रक्रिया है. शैल्पिकता पर बनी सहजता रचनाओं को जहाँ शिष्ट करती है, वहीं भाव पक्ष पर सधने से प्रस्तुतीकरण तार्किक और सर्वस्वीकृत बनता है. इन विन्दुओं के सापेक्ष आपकी प्रस्तुत रचना को परखने की कोई कोशिश अन्य रचनाकर्मियों के लिए भी आवश्यक मानक उपलब्धि का कारण बनेगी, इस विश्वास के साथ अपने पक्ष प्रस्तुत करता हूँ. यदि मेरा निवेदन स्पष्ट न हो पाये, तो अपने दृष्टिकोण से मुझे अवश्य लाभान्वित कीजिएगा.

बुलबुल ने छोड़ा पंखों पर
अब बोझा ढोना...............
आदरणीया प्राची जी, क्या यह उद्बोधन किसी बुलबुल हेतु जाति-परिचायक माना जा सकता है ? क्या बुलबुल प्राकृतिक रूप से अपने पंखों पर किसी तरह का बोझा ढोने को विवश हुआ करती है ? हमने तो किसी बुलबुल को ऐसा करते, यानी अपने पंखों पर किसी तरह का बोझा ढोते नहीं देखा है. फिर, कोई विशिष्ट बुलबुल ही आपकी दृष्टि में आयी प्रतीत हो रही है ! यदि ऐसी कोई बुलबुल है, तो उसकी विशिष्ट चर्चा होनी चाहिए थी. अन्यथा आपकी यह पंक्ति सामान्यीकरण की श्रेणी में नहीं रखी जा सकती, जिस पर आम नारी को प्रेरित करती कोई रचना अपनी मय अभिव्यक्ति आश्रित हो. विश्वास है, आपतक मेरी बाते पहुँच रही हैं.

नई सुबह की आहट अब
तुम भी पहचानो ना....
यहाँ ’तुम’ जिस आत्मीयता और पवित्रता के साथ प्रयुक्त हुआ है, वह अनुकरणीय है. इस ’तुम’ में सपूर्ण नारी-जाति को जिस कौशल से पिरोया गया है वह देखने योग्य है. बहुत खूब !

अंतर्मन में गूँजी जबसे
सपनों की सरगम,
अपने रिसते ज़ख्मों पर रख
हिम्मत का मरहम..

झूठे बंधन तोड़ निकलना
सीख चुकी है वो,
बाहों में भर लेगी अम्बर
चाहे जो भी हो,

रहने देगी नहीं अनछुआ
कोई भी कोना....
उपर्युक्त सारी पंक्तियाँ उसी बुलबुल को समर्पित और उससे संदर्भित हैं. उक्त बुलबुल के सापेक्ष इस अंतरे में कोई पंक्ति सायास न लग कर अनायास लग रही है. यही होना भी चाहिए था. कारण कि, गीत के मुखड़े में चाहे जैसे भी हो किसी ’विमुक्त’ हुई बुलबुल की प्रतिस्थापना हो चुकी है.

क्यों बाँधे उसके पल्लू में
बस भीगे सावन,
हालाँकि, आपने नारी जाति को इंगित करने के क्रम में इन पंक्तियों को प्रस्तुत किया है. लेकिन पहले की सभी पंक्तियों से निस्सृत हो रहे भावों को अचानक झटके लगते हैं ! कि, यह ’नारी’ ’तुम’ से बाहर निकल कर अचानक सामने कैसे और क्यों खड़ी हो गयी ? आपने तो मुखड़े में ’नारी’ को किसी तृतीय पुरुष की जगह द्वितीय पुरुष के ’तुम’ में स्थापित किया हुआ है. फिर इस पंक्ति में अन्य पुरुष के वाक्य-विन्यास में ’वो’ कैसे आ सकती है ?

तब, उपर्युक्त पंक्ति को ’बँधे रहें तेरे पल्लू में / क्यों भीगे सावन’ किया जाय तो उक्त दोष का सहज निवारण हो सकता है. इस विन्दु पर आप भी ध्यान दीजिएगा.

भर लेना है हर मौसम से
अब उसको दामन,
यहाँ भी ’उसको’ को उपर्युक्त शर्तों के अनुसार ’तुझको’ हो जाना चाहिए.

खोलो खिड़की ज़रा हवाऐं
अंदर तो आऐं,............... आएँ
उजली किरणों से सीलन की
नींदें खुल जाऐं,............... जाएँ 

मन के आँगन में चिंतन के
बीजों को बोना...

ऊपर की पंक्तियों में आपने मुखड़े या आधार-पंक्ति के ’तुम’ को खूब इंगित किया है ! वाह !!

आपके प्रयासों के लिए सादर शुभकामनाएँ
शुभेच्छाएँ

Comment by अलका 'कृष्णांशी' on February 5, 2017 at 3:10pm

आदरणीया डॉ. प्राची सिंह जी,सुंदर गीत लिखा है आपने 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on January 23, 2017 at 1:50am

अभिव्यक्ति पर आपकी अनमोल पाठकीय उपस्थिति और उत्साह वर्धक सराहना के लिए सादर धन्यवाद आ० सुशिल सरना जी, आ० महेंद्र कुमार जी, आ० आशुतोष मिश्रा जी,आ० बृजेश कुमार जी, आ० सीमा मिश्रा जी और आ० गिरिराज भंडारी जी


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on January 23, 2017 at 1:47am

सादर धन्यवाद आदरणीय अरुण कुमार निगम जी 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on January 23, 2017 at 1:46am

आदरणीय मिथिलेश भाई जी 

लेखनी को जिस तन्मयता से आप बाँचते हैं, भावों से जिस तरह आप गुज़रते हुए उन्हें स्पर्श करते हैं, वो यकीनन रचनाकार को आत्मीय संतोष प्रदान करता है.. लेखनी सार्थक प्रतीत होने लगती है 

अभिव्यक्ति को मान देने के लिए और लेखनी के प्रति आश्वस्ति प्रदान करने के लिए सादर धन्यवाद 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on January 8, 2017 at 12:29pm

अपनी तमाम पिछली कमज़ोरियों को हटा , अब नारी शक्ति उन्मुक्त गगन मे विचरण करने लग गयी है .... बहुत खूब आदरनीया प्राची जी ... नारी शक्ति जागरण पर रचे इस गीत के लिये आपकओ हार्दिक बधाइयाँ ।

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on January 6, 2017 at 9:25pm
वाह आदरणीया वाह बहुत सुन्दर शब्द रूपी मोतियों को पिरो कर महक से सरोवार माला गुँथी है आपने ...इसके लिए आपको हार्दिक बधाइयाँ ...
Comment by Dr Ashutosh Mishra on January 6, 2017 at 8:01pm
आदरणीया प्राची जी मैं आदरणीय मिथिलेश जी से पूरी तरह सहमत हूँ मेरे भी दिल में मंत्रमुग्ध कर देने वाले ऐसे ही बिचार पनप रहे हैं वाकई कमाल का गीत कई बार पढ़ा गीत पर आदरणीय मिथिलेश जी की प्रतिक्रिया से गीत के मर्म को समझने में और सहायता मिली ढेर सारे बधाई के साथ सादर
Comment by Mahendra Kumar on January 6, 2017 at 3:26pm
आदरणीया प्राची जी, बहुत ही ख़ूबसूरत गीत लिखा है आपने। इस शानदार और प्यारी रचना पर दिल से बधाई स्वीकार करें। सादर।
Comment by Sushil Sarna on January 6, 2017 at 2:25pm

खोलो खिड़की ज़रा हवाऐं
अंदर तो आऐं,
उजली किरणों से सीलन की
नींदें खुल जाऐं,

मन के आँगन में चिंतन के
बीजों को बोना...
नई सुबह की आहट अब
तुम भी पहचानो ना....

आदरणीया डॉ प्राची सिंह जी भावों की ऐसी सुंदर सरिता पढ़कर मन आनंदित हो जाता है। भाव,शब्द,प्रवाह और लय प्रस्तुति को आनंदमयी बनाते हैं। इस अप्रतिम प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई स्वीकारें।

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity

सुरेश कुमार 'कल्याण' commented on सुरेश कुमार 'कल्याण''s blog post गहरी दरारें (लघु कविता)
"परम् आदरणीय सौरभ पांडे जी सदर प्रणाम! आपका मार्गदर्शन मेरे लिए संजीवनी समान है। हार्दिक आभार।"
1 hour ago
Sushil Sarna posted a blog post

दोहा सप्तक. . . . . विविध

दोहा सप्तक. . . . विविधमुश्किल है पहचानना, जीवन के सोपान ।मंजिल हर सोपान की, केवल है  अवसान…See More
6 hours ago

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey commented on सुरेश कुमार 'कल्याण''s blog post गहरी दरारें (लघु कविता)
"ऐसी कविताओं के लिए लघु कविता की संज्ञा पहली बार सुन रहा हूँ। अलबत्ता विभिन्न नामों से ऐसी कविताएँ…"
7 hours ago
सुरेश कुमार 'कल्याण' posted a blog post

छन्न पकैया (सार छंद)

छन्न पकैया (सार छंद)-----------------------------छन्न पकैया - छन्न पकैया, तीन रंग का झंडा।लहराता अब…See More
8 hours ago
Aazi Tamaam commented on Aazi Tamaam's blog post ग़ज़ल: चार पहर कट जाएँ अगर जो मुश्किल के
"आदरणीय सुधार कर दिया गया है "
11 hours ago
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' commented on सुरेश कुमार 'कल्याण''s blog post गहरी दरारें (लघु कविता)
"आ. भाई सुरेश जी, सादर अभिवादन। बहुत भावपूर्ण कविता हुई है। हार्दिक बधाई।"
yesterday
Aazi Tamaam posted a blog post

ग़ज़ल: चार पहर कट जाएँ अगर जो मुश्किल के

२२ २२ २२ २२ २२ २चार पहर कट जाएँ अगर जो मुश्किल केहो जाएँ आसान रास्ते मंज़िल केहर पल अपना जिगर जलाना…See More
yesterday
सुरेश कुमार 'कल्याण' posted a blog post

गहरी दरारें (लघु कविता)

गहरी दरारें (लघु कविता)********************जैसे किसी तालाब कासारा जल सूखकरतलहटी में फट गई हों गहरी…See More
yesterday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' posted a blog post

शेष रखने कुटी हम तुले रात भर -लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

212/212/212/212 **** केश जब तब घटा के खुले रात भर ठोस पत्थर  हुए   बुलबुले  रात भर।। * देख…See More
Sunday
अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 170 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय चेतन भाईजी,  प्रस्तुति के लिए हार्दि बधाई । लेकिन मात्रा और शिल्पगत त्रुटियाँ प्रवाह…"
Sunday
अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 170 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय सौरभ भाईजी, समय देने के बाद भी एक त्रुटि हो ही गई।  सच तो ये है कि मेरी नजर इस पर पड़ी…"
Sunday
अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 170 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय लक्ष्मण भाईजी, इस प्रस्तुति को समय देने और प्रशंसा के लिए हार्दिक dhanyavaad| "
Sunday

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service