बुलबुल ने छोड़ा पंखों पर
अब बोझा ढोना,
नई सुबह की आहट अब
तुम भी पहचानो ना....
अंतर्मन में गूँजी जबसे
सपनों की सरगम,
अपने रिसते ज़ख्मों पर रख
हिम्मत का मरहम,
झूठे बंधन तोड़ निकलना
सीख चुकी है वो,
बाहों में भर लेगी अम्बर
चाहे जो भी हो,
रहने देगी नहीं अनछुआ
कोई भी कोना....
नई सुबह की आहट अब
तुम भी पहचानो ना....
क्यों बाँधे उसके पल्लू में
बस भीगे सावन,
भर लेना है हर मौसम से
अब उसको दामन,
खोलो खिड़की ज़रा हवाऐं
अंदर तो आऐं,
उजली किरणों से सीलन की
नींदें खुल जाऐं,
मन के आँगन में चिंतन के
बीजों को बोना...
नई सुबह की आहट अब
तुम भी पहचानो ना....
मौलिक और अप्रकाशित
Comment
आदरणीया प्राची जी, भँवर की गति की क्षैतिज दिशा नहीं होती. किन्तु, उनमें अकूत बल होता है. उन्हें निस्तार मिलना ही किसी नदी के लिए सार्थक जीवन मिलना होता है. आपके प्रस्तुत प्रयास में अदम्य आवेगशील भँवर को मानो सदिश प्रवाह का क्षैतिज विस्तार मिला है. इस सोच को व्यापक होना ही चाहिए. ऐसे में इस सोच को गीत-विधा में प्रस्तुत करना श्लाघनीय है. आपका हार्दिक धन्यवाद.
किन्तु, साथ ही, गीत के भावपक्ष की अभिव्यक्ति के समानान्तर तार्किकता को साधना शिल्प-पक्ष को साधने से अधिक गहन और आवश्यक हो जाता है. जहाँ रचनाकर्म के परिप्रेक्ष्य में शिल्प पक्ष को साधना रचना-प्रक्रिया का प्रस्थान विन्दु है, जिसके बिना रचनाएँ सार्थक संज्ञा पा ही नहीं सकतीं, भाव पक्ष की साधना रचना-प्रक्रिया के लिए तपस-प्रक्रिया है. शैल्पिकता पर बनी सहजता रचनाओं को जहाँ शिष्ट करती है, वहीं भाव पक्ष पर सधने से प्रस्तुतीकरण तार्किक और सर्वस्वीकृत बनता है. इन विन्दुओं के सापेक्ष आपकी प्रस्तुत रचना को परखने की कोई कोशिश अन्य रचनाकर्मियों के लिए भी आवश्यक मानक उपलब्धि का कारण बनेगी, इस विश्वास के साथ अपने पक्ष प्रस्तुत करता हूँ. यदि मेरा निवेदन स्पष्ट न हो पाये, तो अपने दृष्टिकोण से मुझे अवश्य लाभान्वित कीजिएगा.
बुलबुल ने छोड़ा पंखों पर
अब बोझा ढोना...............
आदरणीया प्राची जी, क्या यह उद्बोधन किसी बुलबुल हेतु जाति-परिचायक माना जा सकता है ? क्या बुलबुल प्राकृतिक रूप से अपने पंखों पर किसी तरह का बोझा ढोने को विवश हुआ करती है ? हमने तो किसी बुलबुल को ऐसा करते, यानी अपने पंखों पर किसी तरह का बोझा ढोते नहीं देखा है. फिर, कोई विशिष्ट बुलबुल ही आपकी दृष्टि में आयी प्रतीत हो रही है ! यदि ऐसी कोई बुलबुल है, तो उसकी विशिष्ट चर्चा होनी चाहिए थी. अन्यथा आपकी यह पंक्ति सामान्यीकरण की श्रेणी में नहीं रखी जा सकती, जिस पर आम नारी को प्रेरित करती कोई रचना अपनी मय अभिव्यक्ति आश्रित हो. विश्वास है, आपतक मेरी बाते पहुँच रही हैं.
नई सुबह की आहट अब
तुम भी पहचानो ना....
यहाँ ’तुम’ जिस आत्मीयता और पवित्रता के साथ प्रयुक्त हुआ है, वह अनुकरणीय है. इस ’तुम’ में सपूर्ण नारी-जाति को जिस कौशल से पिरोया गया है वह देखने योग्य है. बहुत खूब !
अंतर्मन में गूँजी जबसे
सपनों की सरगम,
अपने रिसते ज़ख्मों पर रख
हिम्मत का मरहम..
झूठे बंधन तोड़ निकलना
सीख चुकी है वो,
बाहों में भर लेगी अम्बर
चाहे जो भी हो,
रहने देगी नहीं अनछुआ
कोई भी कोना....
उपर्युक्त सारी पंक्तियाँ उसी बुलबुल को समर्पित और उससे संदर्भित हैं. उक्त बुलबुल के सापेक्ष इस अंतरे में कोई पंक्ति सायास न लग कर अनायास लग रही है. यही होना भी चाहिए था. कारण कि, गीत के मुखड़े में चाहे जैसे भी हो किसी ’विमुक्त’ हुई बुलबुल की प्रतिस्थापना हो चुकी है.
क्यों बाँधे उसके पल्लू में
बस भीगे सावन,
हालाँकि, आपने नारी जाति को इंगित करने के क्रम में इन पंक्तियों को प्रस्तुत किया है. लेकिन पहले की सभी पंक्तियों से निस्सृत हो रहे भावों को अचानक झटके लगते हैं ! कि, यह ’नारी’ ’तुम’ से बाहर निकल कर अचानक सामने कैसे और क्यों खड़ी हो गयी ? आपने तो मुखड़े में ’नारी’ को किसी तृतीय पुरुष की जगह द्वितीय पुरुष के ’तुम’ में स्थापित किया हुआ है. फिर इस पंक्ति में अन्य पुरुष के वाक्य-विन्यास में ’वो’ कैसे आ सकती है ?
तब, उपर्युक्त पंक्ति को ’बँधे रहें तेरे पल्लू में / क्यों भीगे सावन’ किया जाय तो उक्त दोष का सहज निवारण हो सकता है. इस विन्दु पर आप भी ध्यान दीजिएगा.
भर लेना है हर मौसम से
अब उसको दामन,
यहाँ भी ’उसको’ को उपर्युक्त शर्तों के अनुसार ’तुझको’ हो जाना चाहिए.
खोलो खिड़की ज़रा हवाऐं
अंदर तो आऐं,............... आएँ
उजली किरणों से सीलन की
नींदें खुल जाऐं,............... जाएँ
मन के आँगन में चिंतन के
बीजों को बोना...
ऊपर की पंक्तियों में आपने मुखड़े या आधार-पंक्ति के ’तुम’ को खूब इंगित किया है ! वाह !!
आपके प्रयासों के लिए सादर शुभकामनाएँ
शुभेच्छाएँ
आदरणीया डॉ. प्राची सिंह जी,सुंदर गीत लिखा है आपने
अभिव्यक्ति पर आपकी अनमोल पाठकीय उपस्थिति और उत्साह वर्धक सराहना के लिए सादर धन्यवाद आ० सुशिल सरना जी, आ० महेंद्र कुमार जी, आ० आशुतोष मिश्रा जी,आ० बृजेश कुमार जी, आ० सीमा मिश्रा जी और आ० गिरिराज भंडारी जी
सादर धन्यवाद आदरणीय अरुण कुमार निगम जी
आदरणीय मिथिलेश भाई जी
लेखनी को जिस तन्मयता से आप बाँचते हैं, भावों से जिस तरह आप गुज़रते हुए उन्हें स्पर्श करते हैं, वो यकीनन रचनाकार को आत्मीय संतोष प्रदान करता है.. लेखनी सार्थक प्रतीत होने लगती है
अभिव्यक्ति को मान देने के लिए और लेखनी के प्रति आश्वस्ति प्रदान करने के लिए सादर धन्यवाद
अपनी तमाम पिछली कमज़ोरियों को हटा , अब नारी शक्ति उन्मुक्त गगन मे विचरण करने लग गयी है .... बहुत खूब आदरनीया प्राची जी ... नारी शक्ति जागरण पर रचे इस गीत के लिये आपकओ हार्दिक बधाइयाँ ।
खोलो खिड़की ज़रा हवाऐं
अंदर तो आऐं,
उजली किरणों से सीलन की
नींदें खुल जाऐं,
मन के आँगन में चिंतन के
बीजों को बोना...
नई सुबह की आहट अब
तुम भी पहचानो ना....
आदरणीया डॉ प्राची सिंह जी भावों की ऐसी सुंदर सरिता पढ़कर मन आनंदित हो जाता है। भाव,शब्द,प्रवाह और लय प्रस्तुति को आनंदमयी बनाते हैं। इस अप्रतिम प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई स्वीकारें।
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