हर पर्व से पहले आते थे तुम
हँसती-हँसती, मैं रंगोली सजा देती ...
नाउमीदी में भी कोई उमीद हो मानो
मेरी अकुलाती इच्छाएँ तुम्हारी राह तकती थीं
श्रद्धा के द्वार पर अभी भी मेरे प्रिय परिजन
सूर्य की किरणें ठहर जाती हैं
चाँद जहाँ भी हो, पर्व की रातों कोई आस लिए
आकर छत पर रुक जाता है
तन्हा मैं, सोच-सोच में
ढूँढती हूँ बाँह-हाथ तुम्हारे
स्पर्श से पूर्व विलीन हो जाते हैं स्पर्श
उदास साँवले दिन की कलौंस
अन्धकार-अम्बर में हर रोज़
एक और लेप लगा जाती है
आन्तरिक खामोशी की दीवार
समय से और मोटी हुई जाती है
स्नेहिल शब्द ओंठों से तुम्हारे
सुखद बारिश-से बरसते
महकते थे वीरान हवाओं में भी
पर प्रणय के सूर्योदय से पहले ही
तुम चले गए क्षितिज के उस पार
दूर, बहुत दूर कहीं, मेरी पहुँच से परे
अनगिन अग्निमय फ़ासले, सदैव के लिए
मेरी सिकुड़ती बदनसीब सोच से भी परे
समय के खँडहरों के उजाड़ प्रसारों मे
मेरी आत्मा के कण्टकित एकान्तों में
ढूँढती रहती हूँ तुम्हारे वही स्नेहिल शब्द
आँसुओं-सिंचे अब दुखजनित शब्द
हृदय में बहती रहती है तुम्हारे प्रति स्नेह-लहरी
ममतामयी गंगा की लहरों-सी
तुम्हारे संवेदनमय सुगंधित शब्दों का विस्तार
मुस्काता है हर दिन मेरे क्षितिज के आर-पार
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-- विजय निकोर
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
रचना की सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीय विजय शंकर जी
हमेशा की तरह कविता पाठक को बांधे रखती है एक संवाद स्थापित कर लेती है कोई अपना प्रियजन चला जाए उसकी मधुर्स्म्रतियाँ ही जीने का सहारा होती हैं हृदय को छोटी हैं आपकी रचनाएँ आद० विजय निकोर से बहुत बहुत बधाई आपको
तुम्हारे संवेदनमय सुगंधित शब्दों का विस्तार
मुस्काता है हर दिन मेरे क्षितिज के आर-पार
वाह वाह वाह क्या भाव हैं आदरणीय विजय निकोर जी .... सरल शब्दों में गहन भावों की सरिता जो दूर तक अपने साथ ले जाती है। इस अप्रतिम प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई सर।
आदरणीय विजय निकोर सर, हर बार की तरह एक प्रभावशाली प्रस्तुति जो पाठक को बहा ले जाती है अपने साथ. इस प्रस्तुति हेतु बहुत बहुत बधाई. सादर
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