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बह्र-ए-मज़ारअ मुसम्मिन अखरब मकफूफ़
यूँ भीड़ में जनाब पुकारा न कीजिये
रुसवा हमें यूँ आप दुबारा न कीजिये
बिलकुल खुली किताब है चेहरा ये आपका
हर रोज पढ़ रहे हैं इशारा न कीजिये
नाराज हो न जाएँ सितारे औ आसमाँ
यूँ चाँद का नकाब उतारा न कीजिये
मौजे मचल रही हैं तुम्हे देख देख कर
गर पाँव चूम लें तो किनारा न कीजिये
गुलशन उदास होगा परेशान डालियाँ
यूँ रास्ते गुलों से सँवारा न कीजिये
अपनी हमें न फिक्र जमाने की फिक्र है
बेवक्त इन्तजार हमारा न कीजिये
गुस्ताख़ दिल कहीं न भुला दे रिवायतें
जज्बात यूँ हमारे उभारा न कीजिये
--मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
प्रिय मंजू शर्मा जी ,आपको ग़ज़ल पसंद आई आपका तहे दिल से बहुत- बहुत शुक्रिया .
आदरणीय डॉ० आशुतोष जी आपका पुनः आभार .
आदरणीया राजेश दीदी ! बहुत उम्दा ग़ज़ल, दिल से मुबारकबाद आपको
आद० समर भाई जी ,आपकी प्रतिक्रिया के बाद मैं अपनी किसी ग़ज़ल के प्रति आश्वस्त होती हूँ आपको पसंद आई मेरी मेहनत सफल हुई तहे दिल से आपका बहुत बहुत शुक्रिया भाई जी
आद० विन्ध्येश्वरी भैया आपको कभी कभी ओबीओ पर देखना अच्छा लगता है पहले तो आप बहुत सक्रिय रहे थे चलो कोई व्यस्तता होगी .आपको ग़ज़ल पसंद आई मेरा लिखना सार्थक हुआ दिल से बहुत- बहुत शुक्रिया .
आद० सुरेन्द्र नाथ भैया जी ,आपको ग़ज़ल पसंद आई मेरा लिखना सार्थक हुआ तहे दिल से शुक्रिया .
आद० डॉ० आशुतोष जी आपको ग़ज़ल पसंद आई उसका तहे दिल से शुक्रिया कुछ संशय को आपने खुलकर पूछा ये एक पाठक का धर्म है कि एक पाठक पूरी शिद्दत के साथ डूब का रचना पढ़ रहा है कुछ प्रश्न उभरे हैं तो लेखक का भी धर्म है ऊँ संशयों का निवारण करना
न० १ ..मतले को लेकर भाव इस तरह हैं की नायिका ने पहले भीड़ में पुकारने पर नजरअंदाज कर दिया किन्तु दूसरी बार नाराजगी जाहिर की है
न.२ ---ये सही है कि चाँद चाहे जमीं का हो या आसमां का उसके अपनों को बुरा तो लगेगा ही यदि कोई उसका नकाब उतारे इशारों में बिम्बात्मक शैली में शेर है
न० ३ ,फिक्र दो बार आ गया उसमे तो कोई बड़ी बात नहीं शेर की खूबसूरती पर मेरे ख़याल से तो कोई प्रभाव नहीं पड़ रहा .
आशा है मैं अपनी बात स्पष्ट कर पाई
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