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अपनाया मुहब्बत में पतिंगो ने क़जा को
बदनाम यूँ करते न कभी शम्अ वफ़ा को
है जह्र पियाले में ये मीरा को पता था
बे खौफ़ मगर दिल से लगाया था सजा को
जो लोग सदाकत से करें पाक मुहब्बत
वो बीच में लाते न कभी अपनी अना को
आँधी का नहीं खौफ़ चरागों को भला फिर
समझेंगे उसे क्या जरा ये कह दो हवा को
देखी वो जवाँ झील लिए नूर की गागर
लो चाँद दीवाना चला अब छोड़ हया को
जब रोज जलाता रहे खुर्शीद तपिश से
वो फूल तरसते हैं सदा बाद-ए-सबा को
सजदे में बिछाए हैं बगीचों ने सितारे
रोका न करो अब्र यूँ सूरज की जिया को
दुनिया ये मुहब्बत पे भरोसा न करेगी
तोड़ा न करो यार कभी रस्मे वफा को
---------राजेश कुमारी ‘राज’
Comment
आद० मोहम्मद आरिफ़ जी ,आपको ग़ज़ल पसंद आई आपका तहे दिल से शुक्रिया |
आद० तेजवीर सिंह जी, ग़ज़ल के सर्वप्रथम पाठक के रूप में आप द्वारा दी गई इस दाद के प्रति दिल से शुक्रगुजार हूँ बहुत बहुत शुक्रिया .
आदरणीय राजेश कुमारी जी। हार्दिक बधाई।बेहतरीन गज़ल।
जो दिल से सदाकत से करें पाक मुहब्बत
वो बीच में लाते न कभी अपनी अना को|
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