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मंज़र न जाने कौन उसे क्या दिखा गया
या आइना था, जो उसे पत्थर बना गया
तू भी तवाफ ए दश्त में चलता, ऐ शह’र ! तो
कहता यही, सुकून मेरे दिल को आ गया
हँसने की कोशिशों से निकल आये अश्क़ क्यूँ
ये किसका दर्द रूह में मेरी समा गया
गिनते रहे वो रोटियाँ थाली में डाल कर
भूखा उसी समय ही जाँ अपनी लुटा गया
लाठी नुमा रहा था जो अंधे के साथ साथ
पत्थर समझ के राह का, कोई हटा गया
वो बेवफाई आज भी जीती है ज़ेह्न में
गो ज़िन्दगी से कब का मेरी, बेवफ़ा गया
लिक्खा भी मेरा नाम तो वो रेत पर लिखा
झोंका हवा का देखिये उसको मिटा गया
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
आदरनीय बृजेश भाई , गज़ल की सराहना के लिये हार्दिक आभार आपका ।
आदरणीय महेन्द्र भाई , हौसला अफज़ाई का तहे दिल से शुक्रिया आपका ।
आदरनीय सुरेन्द्र भाई , गज़ल की सराहना के लिये आपका हृदय से आभार ।
आदरनीय वासुदेव भाई , ग़ज़ल पर उपस्थिति और सराहना के लिये हृदय से आभार ।
अदरनीय नीलेश भाई , हौसला अफज़ाई का शुक्रिया ।
आदरनीय राम बली भाई , गज़ल की सराहना के लिये आपका हृदय से आभार ।
आदरणीय ऐब ए तनाफुर - तब माना जाता है , जब एक शब्द का आखिरी व्यंजन बिना मात्रा के तुरंत बाद के शब्द का पहला व्यंजन भी वही हो चाहे बिना मात्रा के हो या मात्रा के साथ -- जैसे थक- कर , या - थक- के । लेकिन इस ऐब को भी न मान कर गज़ल कहने वाले भी बहुत जाने माने शायर हैं -- ये आप पर निर्भर है कि आप कितना शुद्ध ग़ज़ल कहना चाहते हैं ।
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