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मंज़र न जाने कौन उसे क्या दिखा गया
या आइना था, जो उसे पत्थर बना गया
तू भी तवाफ ए दश्त में चलता, ऐ शह’र ! तो
कहता यही, सुकून मेरे दिल को आ गया
हँसने की कोशिशों से निकल आये अश्क़ क्यूँ
ये किसका दर्द रूह में मेरी समा गया
गिनते रहे वो रोटियाँ थाली में डाल कर
भूखा उसी समय ही जाँ अपनी लुटा गया
लाठी नुमा रहा था जो अंधे के साथ साथ
पत्थर समझ के राह का, कोई हटा गया
वो बेवफाई आज भी जीती है ज़ेह्न में
गो ज़िन्दगी से कब का मेरी, बेवफ़ा गया
लिक्खा भी मेरा नाम तो वो रेत पर लिखा
झोंका हवा का देखिये उसको मिटा गया
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
वाह वाह ..बहुत ख़ूब .....
हर शेर पर दाद लीजिये..
बधाई
आदरनीय समर भाई , गज़ल पर उपस्थिति और सराहना के लिये आपका ह्र्दय से आभार ।
आपकी सलाह उचित है , मै वैसा ही सुधार कर लूँगा , आपका आभार ॥
आदरनीय तस्दीक भाई , हौसला अफज़ाई का तहे दिल से शुक्रिया आपका ।
आ. तकाबुले रदीफैन दोष है , उस शेर मे , मै जानता हूँ ... हटाने का प्रयास करूँगा , वैसे मै ज़रूरी नही समझता , फिर भी ।
आदरनीय सुशील भाई , गज़ल पर उपस्थिति और सराहना के लिये आपका हृदय से आभार ।
आदरणीय आशुतोष भाई , हौसला अफज़ाई का तहे दिल से शुक्रिया आपका ।
आदरणीय - तवाफ ए दश्त --- जंगल का चक्कर लगाना , या जंगल घूमना
आदरणीय मो. आरिफ भाई , उत्साहवर्धन के लिये आपका हार्दिक आभार ।
मुहतरम जनाब गिरिराज साहिब , अच्छी ग़ज़ल हुई है , शेर दर शेर दाद के साथ
मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएँ ---शेर 7 के उला मिसरे में एब- तक़ाबुल- रदीफेन है
लिक्खा भी मेरा नाम तो लिक्खा है रेत पर ---- देख लीजिएगा --सादर
लिक्खा भी मेरा नाम तो वो रेत पर लिखा
झोंका हवा का देखिये उसको मिटा गया
वाह आदरणीय गिरिराज भाई साहिब क्या दिलकश अहसास पिरोये हैं आपने इस ग़ज़ल में। दिल से बधाई स्वीकार करें।
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