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ग़ज़ल -ये किसका दर्द रूह में मेरी समा गया - ( गिरिराज )

221   2121   1221   212

मंज़र न जाने कौन उसे क्या दिखा गया

या आइना था, जो उसे पत्थर बना गया

 

तू भी तवाफ ए दश्त में चलता, ऐ शह’र ! तो   

कहता यही, सुकून मेरे दिल को आ गया

 

हँसने की कोशिशों से निकल आये अश्क़ क्यूँ

ये किसका दर्द रूह में मेरी समा गया

 

गिनते रहे वो रोटियाँ थाली में डाल कर

भूखा उसी समय ही जाँ अपनी लुटा गया

 

लाठी नुमा रहा था जो अंधे के साथ साथ    

पत्थर समझ के राह का, कोई हटा गया

 

वो बेवफाई आज भी जीती है ज़ेह्न में

गो ज़िन्दगी से कब का मेरी, बेवफ़ा गया

 

लिक्खा भी मेरा नाम तो वो रेत पर लिखा

झोंका हवा का देखिये उसको मिटा गया   

***************************************

मौलिक एवँ अप्रकाशित

 

 

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Comment

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Comment by Nilesh Shevgaonkar on March 8, 2017 at 8:05am

वाह वाह ..बहुत ख़ूब .....
हर शेर पर दाद लीजिये..
बधाई  

Comment by रामबली गुप्ता on March 8, 2017 at 6:30am
आद0 भाई गिरिराज जी बहुत ही बेहतरीन ग़ज़ल कही है आपने। शैर दर शैर दिली दाद के साथ मुबारकबाद कुबूल फरमाएं।

दूसरे शैर के सानी में ऐब ए तनाफुर तो नही देख लीजियेगा। इस बारे में स्पष्ट करियेगा ताकि हमारी भी जानकारी में वृद्धि हो सके। सादर

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on March 7, 2017 at 10:18pm

आदरनीय समर भाई , गज़ल पर उपस्थिति और सराहना के लिये आपका ह्र्दय से आभार ।

आपकी सलाह उचित है , मै वैसा ही सुधार कर लूँगा , आपका आभार ॥


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on March 7, 2017 at 10:16pm

आदरनीय तस्दीक भाई , हौसला अफज़ाई का तहे दिल से शुक्रिया आपका ।

आ. तकाबुले रदीफैन दोष है , उस शेर मे ,  मै जानता हूँ ... हटाने का प्रयास करूँगा , वैसे मै ज़रूरी नही समझता , फिर भी ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on March 7, 2017 at 10:14pm

आदरनीय सुशील भाई , गज़ल पर उपस्थिति और सराहना के लिये आपका हृदय से आभार ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on March 7, 2017 at 10:13pm

आदरणीय आशुतोष भाई ,  हौसला अफज़ाई का तहे दिल से शुक्रिया आपका ।

आदरणीय - तवाफ ए दश्त  --- जंगल का चक्कर लगाना , या जंगल घूमना


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on March 7, 2017 at 10:10pm

आदरणीय मो. आरिफ भाई , उत्साहवर्धन के लिये आपका हार्दिक आभार ।

Comment by Samar kabeer on March 7, 2017 at 9:19pm
जनाब गिरिराज भंडारी जी आदाब,ग़ज़ल अच्छी हुई है,दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।

'वो बेवफाई आज भी जीती है ज़ह्न में
गो ज़िन्दगी से क़ब का मेरी बेवफ़ा गया'
इस शैर के ऊला मिसरे में'वो बेवफ़ाई'शब्द कुछ अधूरा सा लगता है,जबकि यहां 'उसकी बेवफ़ाई'होना चाहिये ,मेरे ख़याल से अगर ऊला मिसरा यूँ कहें तो ?:-
क्यों उसकी बेवफ़ाई अभी तक है ज़ह्न में
गो ज़िन्दगी से कब का मेरी बेवफ़ा गया"
Comment by Tasdiq Ahmed Khan on March 7, 2017 at 8:04pm

मुहतरम जनाब गिरिराज साहिब , अच्छी ग़ज़ल हुई है , शेर दर शेर दाद के साथ
मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएँ ---शेर 7 के उला मिसरे में एब- तक़ाबुल- रदीफेन है
लिक्खा भी मेरा नाम तो लिक्खा है रेत पर ---- देख लीजिएगा --सादर

Comment by Sushil Sarna on March 7, 2017 at 7:27pm

लिक्खा भी मेरा नाम तो वो रेत पर लिखा
झोंका हवा का देखिये उसको मिटा गया

वाह आदरणीय गिरिराज भाई साहिब क्या दिलकश अहसास पिरोये हैं आपने इस ग़ज़ल में। दिल से बधाई स्वीकार करें।

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