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खड़े तनकर तुम्हारे सामने दीवार भी हम थे (ग़ज़ल 'राज')

बहा तुमको लिए जाती थी जो वो  धार भी हम थे

हमी साहिल तुम्हारी नाव के  पतवार भी हम थे

निगल जाता सरापा तुमको वो तूफ़ान था जालिम

खड़े तनकर  उसी के  सामने दीवार भी हम थे

मुक़द्दस फूल थे मेरे चमन के इक महकते गर 

छुपे बैठे हिफाज़त को तुम्हारी ख़ार भी हम थे

किया घायल तुम्हारा दिल अगर इल्जाम भी होता 

तुम्हारा  दर्द पीने  को वहाँ गमख्वार भी हम थे

रिवाजों की बनी जंजीर ने गर तुमको बांधा था

वहाँ मौजूद उसको काटने तलवार भी हम थे

अगर ये  पूछते उससे  तुम्हारा  दिल भी कह देता

चुराया आँख का काजल भले शृंगार भी हम थे

ज़माने की बिछाई धूप में तपना पड़ा तुमको

मुकम्मल छाँव देने को तुम्हें अश्जार भी हम थे

कभी अपनी मुहब्बत को अगर गिनते गुनाहों में

मुक़र्रर  हर सज़ा के वास्ते हक़दार भी हम थे

अगर तुम दिल्लगी से खेलते हम से तो क्या होता 

तुम्हारी जीत भी हम थे तुम्हारी हार भी हम थे

--------मौलिक एवं अप्रकाशित 

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Comment by rajesh kumari on April 11, 2017 at 1:03pm

जी आद० समर भाई जी नाव के पतवार ही किया है मूल पोस्ट में इधर भी क्र लूँगी आप इजाजत की क्या बात कर रहें हैं भाई जी ये  बात कहके शर्मिंदा मत कीजिये आपकी समीक्षा का तो इन्तजार रहता है पोस्ट पर .आपका स्वागत है 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on April 11, 2017 at 12:59pm

आद० नरेंद्र सिंह जी ,ग़ज़ल आपको अच्छी लगी बहुत बहुत आभारी हूँ 

Comment by बासुदेव अग्रवाल 'नमन' on April 11, 2017 at 10:46am
आदरणीया राजेश कुमारी जी बहुत ही सुंदर ग़ज़ल कही है। अशआर दर अशआर दाद कुबूल फरमाएं। ग़ज़ल का अंत इन शब्दों से बहुत सुंदर हुआ है।

अगर तुम खेलते हम से समझकर दिल्लगी दिल की
तुम्हारी जीत भी हम थे तुम्हारी हार भी हम थे
Comment by Samar kabeer on April 10, 2017 at 7:47pm
'नाव का पतवार' नहीं "नाव के पतवार"कीजिये न ?पतवार बहुवचन है, आपकी ग़ज़ल के बाक़ी अशआर पर विस्तृत टिप्पणी कल करूँगा,अगर आपकी इजाज़त हो ?
Comment by narendrasinh chauhan on April 10, 2017 at 7:20pm

सुन्दर रचना 


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Comment by rajesh kumari on April 10, 2017 at 7:12pm

आद० समर भाई जी ,आपको ग़ज़ल अच्छी लगी इसका दिल से शुक्रिया | आपने सही ध्यान दिलाया पतवार वाले मिसरे में --नाव के पतवार कर दूंगी ..नाव का पतवार जम नहीं रहा | दूसरे  भाई जी मैं ये तो नहीं कहूँगी की ये ग़ज़ल जल्दी बाजी में कही है दरअसल एक आयोजन में रदीफ़ दिया गया था बहुत दिमाग पच्ची करनी पड़ी --भी हम थे --इस रदीफ़ पर चूंकि एक मुसलसल ग़ज़ल कही है तो इसमें तुमको या तुम्हे आना लाजमी था फिर भी कहीं कुछ हो सका तो अवश्य दुरुस्त करूंगी | आपका बहुत बहुत शुक्रिया इसी तरह मार्ग दर्शन करते रहें सादर |


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Comment by rajesh kumari on April 10, 2017 at 7:07pm

आद० मोहम्मद आरिफ जी आपको ग़ज़ल पसंद आई आपका दिल से बहुत बहुत शुक्रिया |


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Comment by rajesh kumari on April 10, 2017 at 7:06pm

आद० लक्ष्मण धामी भैया ,आपको ग़ज़ल पसंद आई दिल से बहुत बहुत आभार आपका |

Comment by Samar kabeer on April 10, 2017 at 6:05pm
बहाना राजेश कुमारी जी आदाब,ग़ज़ल तो अच्छी है,दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।
मतले के सानी मिसरे में 'पतवार'शब्द पुल्लिंग है, देखियेगा ।
ग़ज़ल के हर शैर में 'तुम','तुम्हारी',तुमको'शब्द आये हैं जो ग़ज़ल को कमज़ोर कर रहे हैं,बहुत से मिसरे चुस्त नहीं हैं,ऐसा लगता है ये ग़ज़ल आपने बहुत जल्दबाज़ी में कही है ?
Comment by Mohammed Arif on April 10, 2017 at 12:40pm
आदरणीया राजेश कुमारी जी आदाब, बेहतरीन ग़ज़ल के लिए शे'र दर शे'र दाद के साथ मुबारकबाद ।

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