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कार्ड काफी था न लॉगिन के लिए
वो हमे भी ले गए पिन के लिए
चाँद पर जाकर शहद वो खा रहे
आप अब भी रो रहे जिन के लिए
शेर को आता है बस करना शिकार
फूल जंगल में खिले किन के लिए
गुठलियों के दाम भी वो ले गया
उसने शीरीं आम जब गिन के लिये
आ गई अब ब्रेड में बीमारियाँ
जी रहे थे क्या इसी दिन के लिए
आये थे जापान से कल लौट कर
फिर उड़े वो रूस बर्लिन के लिए
पास पप्पू एक दिन हो जाएगा
है दुआ इस गैर मुमकिन के लिए
मौलिक एवं अप्रकाशित
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आ. रवि भैया बेहतरीन ग़ज़ल हुई है, इस्लाह के बाद रंग निखर गया है
कार्ड काफी था न लॉगिन के लिए
वो हमे भी ले गए पिन के लिए
चाँद पर जाकर शहद वो खा रहे
आप अब भी रो रहे जिन के लिए
वाह आदरणीय वाह ... आधुनिकता के परिवेश में अद्भुत अशआर की इस दिलकश ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई। हर शेर कल्पना की पराकाष्ठा से सुसज्जित है। हार्दिक बधाई स्वीकार करें आदरणीय रवि शुक्ला जी।
आदरणीय समर साहब और गिरिराज भाई जी पटल पर भी सुधार कर दिया है विलंब के लिये क्षमा चाहते है आदरणीय नीलेश जी, नीरज जी और बसंत जी गजल आपको पंसद आई बहुत बहुत धन्यवाद आपको हौसला आफजाई के लिये । सादर
वाह क्या कहने
चाँद पर जाकर शहद वो खा रहीं
आप अब भी रो रहे जिन के लिए ....... अहा बस मजा आ गया ....
आदरनीय रवि भाई , बहुत अच्छी गज़ल कही है , हार्दिक बधाइयाँ स्वीकार करें । आ. समर भाई जी की बात सही है ... इस पटल मे भी सुधार आवश्यक है ... एक दोषपूर्ण मिसरा हमारे पटल मे क्यूँ रहे .... अतः मुझे भी पटल मे सुधार आवाश्यक लगता है ।
वाह वा..आ रवि जी ....
समर सर की इस्लाह के बाद ग़ज़ल और भी रँग में आ गयी है
बधाई
आदरणीय समर साहब आदब गजल पर आपकी आमद का बहुत बहुत शुक्रिया साथ ही इस कीमती इस्लाह के लिये दिल से शुक्रिया इससे यकीनन अशआर में और भी रौनक आगई मआनी और भी साफ हो गये । मूल प्रति में सुधार कर लिया है । इसी तरह स्नेह बनाए रखियेगा । सादर
आदरणीय सुरेन्द्र जी गजल आपको पसंद आई उसके लिये आपका बहुत बहुत आभार
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