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आदरनीय जयनित भाई , अच्छी ग़ज़ल कही है हार्दिक बधाइयाँ । आ. नूर भाई और समर भाई की सलाह उचित हैं .. खयाल कीजियेगा ।
आ. जयनित भाई ग़ज़ल पर तो सार्थक चर्चा हो गई है, मेरी तरफ से इस कोशिश के लिए बधाई
आ. जयनीत भाई
अच्छी ग़ज़ल के लिये बधाई ..
समर सर की बातों का संज्ञान लें ..
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हम वो आईने नहीं हैं जो बिखर जाते हैं.... यहाँ दो न साथ आने से शिकस्ते नारवा हो रहा है. साथ ही आईने के ने को गिराने से आईन बनता है जो सार्थक शब्द है अत: इसे गिराने से बचें.
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देखता मैं भी उधर जा के, जिधर जाते हैं... या
देखता हूँ मैं उधर जा के, जिधर जाते हैं
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बधाई
आदरणीय जयनित जी बढि़या गजल कही है आपने बधाई स्वीकार करें ।
आदरणीय जयनित भाई .....उम्दा ग़ज़ल के के शुक्रिया एवम बधाई .....
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