१.
निद्राधीन निस्तब्धता
कुलबुलाता शून्य
सनसनाता पवन
डरता है मन
अर्धरात्रि में क्यूँ
कोई खटखटाता है द्वार
प्रलय, सोने दो आज
------
२.
मेरी ही गढ़ी तुम्हारी आकृति
बारिश की बूँदें
तुम्हारे आँसू
तुम्हारी खिलखिलाती हँसी
कल्पना ही तो हैं सब
वरना
मुद्दतें हो गई हैं तुमसे मिले
-----
३.
कभी अपना, कभी
अपनी छाया का भी
वियोग
दर्द किसका
किसने किसको दिया
किसने ज़्यादा सहा
किसने ज़्यादा दिया
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४.
रह गया है बस
सुनसान के संग
अजाना सुनसान
परिचित में भी मानो
हैं सब अपरिचित
अवशेष है
परिचित उच्छवास
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-- विजय निकोर
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय आरिफ़ भाई,
आपके अच्छे सुझाव पर मैंने और सोचा, और अन्य कवियों की क्षणिंकाएँ भी पढ़ीं।
मुझको व्यंग और बिना व्यंग .. दोनों प्रकार की क्षणिकाएँ मिलीं। अत: आपका कहना
भी सही है। अधिक जानकारी के लिए मैंने एक मित्र जो हिन्दी में पी एच डी करने के बाद हिन्दी/संस्कृत की प्रोफ़ेसर रहीं हैं,
उनसे क्षणिका की परिभाषा पूछी, तो आज उनका उत्तर निम्न आया...
//क्षणिका ...
आदरणीय विजय निकोर जी निःशब्द हूँ ऐसी अनुपम ,अद्भुत और अप्रतिम क्षणिकाओं को पढ़कर। भावों की गहनता, प्रवाह में माधुर्य और शब्द चयन सब बेमिसाल ... हार्दिक बधाई स्वीकार करें सर।
सराहना के लिए हार्दिक आभार, आदरणीय नरेन्द्रसिहं जी।
//कम शब्दों में गहन अर्थ समेटे, " परिचित में भी अपरिचित ..." तथा " किसने ज्यादा सहा, किसने ज्यादा दिया//
भाव को इस प्रकार अनुभव करने के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीया अर्पणा जी।
सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीय आशुतोेष जी ।
आपका हार्दिक आभार,आदरणीय शिज्जु जी।
खूब सुन्दर रचनाऐ। ...
सुझाव के लिए आपका आभार... यही तो खूबी है ओ बी ओ की।
आपसे सराहना मिली, उसके लिए भी हार्दिक धन्यवाद, आदरणीय आरिफ़ भाई।
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