मापनी २१२ २१२ २१२ २१२
रात दिन बस यही सोचता रह गया
पास आकर भी क्यों फासला रह गया
पत्थरों से लड़ाई कहाँ तक करे,
तोप का मुँह सिला का सिला रह गया
चढ़ गयीं परतें मुखोटे पे’ उनके कई,
बेखबर देखता आइना रह गया
वज्न वे रोज अपना बढ़ाते रहे,
और भीतर हृदय खोखला रह गया
सामना जब हुआ देखते रह गए,
प्यार अन्दर छुपा का छुपा रह गया
"मौलिक एवं अप्रकाशित "
Comment
ह्रदय से आभार आदरणीय Mahendra Kumar जी आपका
ह्रदय से आभार आदरणीय Mahendra Kumar जी आपका
आभार आदरणीय Sushil Sarna जी का ह्रदय से आभार
आ. बसंत कुमार जी, उम्दा ग़ज़ल कही है आपने. शेर दर शेर दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल कीजिए. सादर.
चढ़ गयीं परतें मुखोटे पे’ उनके कई,
बेखबर देखता आइना रह गया
वाह आदरणीय बसंत कुमार जी वाह। ... बहुत खूबसूरत अशआर कहे हैं आपने। हार्दिक बधाई इस दिलकश ग़ज़ल के लिए।
आदरणीय सतविन्द्र कुमार जी , हौसला अफजाई के लिए बहुत बहुत शुक्रिया आपका
हौसला अफजाई एवं त्रुटि इंगित करने के लिए बहुत बहुत शुक्रिया आपका आदरणीय Ravi Shukla जी अब देखें
बह्र फाइलुन फाइलुन फाइलुन फाइलुन है
आदमी के मुखोटे पे परतें कई,
बेखबर देखता आइना रह गया
आदरणीय बसंत जी बहुत बढि़या गजल कही है आपने शेर दर शेर मुबारक बाद कुबूल करें । गजल से पहल बह्र लिखने में शायद भूल हो गई है । इसकी बहर फाइलुन फाइलुन फाइलुन फाइलुन है । तीसरे शे का उला मिसरा फिर से देख लें बहर में नही है । सादर
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