सर्द रात में कोहरे को चीरती हुईं कई गाड़ियाँ, आपस में बतियाती हुयीं शहरों की झुग्गियों में कुछ ढूँढ रहीं थी तभी अचानक !
“अबे गाड़ी रोक, बॉस का फ़ोन आ रहा है I”
ड्राईवर ने कस कर ब्रेक दबा दिया और धमाके के साथ “जी, साहब , कहते ही आदमी फ़ोन सहित गाडी के बाहर I”
“अबे ! यह धमाका कैसा सुनाई दिया, जिन्दा हो या फ्री में खर्च हो गए ?”
“नहीं जनाब, सब ठीक है, लगभग सब काम हो गया है, सारे छुटभैये नेता खरीद लिए हैं!” “अल्लाह ने चाहा तो काफी भीड़ इकठ्ठी हो जायेगी!”
“और झंडे कितने इकट्ठे हुए?”
“साहब पाकिस्तान के हजार हो गयें है !”
“और भारत के?” ........इस सवाल पर गहरा सन्नाटा पसर जाता है, उधर से फ़ोन पर कड़कती आवाज आती है, अरे*****साँप सूंघ गया क्या?” साले जलाना तो उन्ही झण्डों को है, कुछ तो बोल !”
“जनाब “तिरंगे का सौदा’ नहीं हो पाया, अपने ही धर्म का है साला, मगर मान नहीं रहा है, कह रहा है चाहो तो गोली मार दो पूरे परिवार को मगर “तिरंगे का सौदा” नहीं करूंगा !”
© हरि प्रकाश दुबे
"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
रचना पर आपके उत्साहवर्धन से मन प्रसन्न हो गया आदरणीय Samar kabeer सर ! हार्दिक आभार आपका ! सादर
आपका हार्दिक आभार आदरणीय डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव सर ! सादर
कहीं कहीं अधूरी सी लग रही है कथा | सादर
आभार आदरणीय Mohammed Arif साहब ! सादर
आ. हरि प्रकाश जी, आपकी लघुकथा का अन्त इसकी जान है, मगर कुछ बातें अस्पष्ट हैं या मुझे समझ में नहीं आयीं जैसे धमाका क्यों और किसने किया और सर्द रात में इतनी गाड़ियाँ झुग्गियों में क्या ढूंढ रही रही थीं? इस प्रस्तुति पर मेरी तरफ़ से हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए. सादर.
आदरणीय , बहुत बढ़िया विषय मज़ा गया .
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