मफ़ाइलुन फ़इलातुन मफ़ाइलुन फ़ेलुन/फ़इलुन
१२१२ ११२२ १२१२ २२/११२
ख़ुलूस-ओ-प्यार की उनसे उमीद कैसे हो
जो चाहते हैं कि नफ़रत शदीद कैसे हो
छुपा रखे हैं कई राज़ तुमने सीने में
तुम्हारे क़ल्ब की हासिल कलीद् कैसे हो
बुझे बुझे से दरीचे हैं ख़ुश्क आँखों के
शराब इश्क़ की इनसे कशीद् कैसे हो
हमेशा घेर कर कुछ लोग बैठे रहते हैं
अदब पे आपसे गुफ़्त-ओ-शुनीद कैसे हो
इसी जतन में लगे हैं हज़ारहा शाइर
अदब की मुल्क में मिट्टी पलीद कैसे हो
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शदीद-सख़्त
क़ल्ब-दिल
कलीद्-चाबी
कशीद्-खींचना
गुफ़्त-ओ-शुनीद-बात चीत
पलीद-गन्दा,ग़लीज़
समर कबीर
मौलिक/अप्रकाशित
Comment
वाह ! इतनी दिलकश गज़ल । आप से यही उमीद रहती है और आप इस उमीद को पूरा करते हैं।
आपको ढेरों बधाई, आदरणीय भाई समर कबीर जी।
इसी जतन में लगे हैं हज़ारहा शाइर
अदब की मुल्क में मिट्टी पलीद कैसे हो ...वाह! कितनी ख़ूबसूरती से आपने प्रचलित मुहावरे को शेर में तब्दील किया है. शानदार!! काफ़िये मेरे लिए बिलकुल नए थे. बहुत कुछ सीखने को मिला. इस उम्दा ग़ज़ल के लिए ढेरों बधाई स्वीकार कीजिए आ. समर कबीर सर. सादर.
आदरणीय समर साहब आदाब फिर से एक बहुत ही बेहतरीन ग़ज़ल पढ़ने को मिली मुबारकबाद पेश करते हैं इसके लिए ।कुछ ऐसी ग़ज़ल कुछ दिन पहले आपने कही थी इन्ही कवाफ़ी के साथ उस पर हुई चर्चाओं से हमे लगा कि यह ग़ज़ल आई है। अशआर में अपनी बात कहने का आपका अंदाज बहुत ही निराला है एक बार फिर से इस ग़ज़ल के अशआर पर दिली मुबारकबाद पेश करते हैं सादर
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