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'अदब की मुल्क में मिट्टी पलीद कैसे हो'

मफ़ाइलुन फ़इलातुन मफ़ाइलुन फ़ेलुन/फ़इलुन

१२१२ ११२२ १२१२ २२/११२


ख़ुलूस-ओ-प्यार की उनसे उमीद कैसे हो
जो चाहते हैं कि नफ़रत शदीद कैसे हो

छुपा रखे हैं कई राज़ तुमने सीने में
तुम्हारे क़ल्ब की हासिल कलीद् कैसे हो

बुझे बुझे से दरीचे हैं ख़ुश्क आँखों के
शराब इश्क़ की इनसे कशीद् कैसे हो

हमेशा घेर कर कुछ लोग बैठे रहते हैं
अदब पे आपसे गुफ़्त-ओ-शुनीद कैसे हो

इसी जतन में लगे हैं हज़ारहा शाइर
अदब की मुल्क में मिट्टी पलीद कैसे हो
----
शदीद-सख़्त
क़ल्ब-दिल
कलीद्-चाबी
कशीद्-खींचना
गुफ़्त-ओ-शुनीद-बात चीत
पलीद-गन्दा,ग़लीज़
समर कबीर
मौलिक/अप्रकाशित

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Comment by surender insan on August 1, 2017 at 9:24am
आदाब मोहतरम समर कबीर साहब । साथ में कुछ शब्दों के अर्थ होने से ग़ज़ल का पूरा आनंद आया।बेहद लाजवाब ग़ज़ल हुई जी। इस ग़ज़ल के होने की कहानी भी पढ़ी है । जिसे आपने चैलेंज की तरह लिया और बेहद ख़ूबसूरती से पूरा किया । आपका 27 साल पहले का मतला भी लाजवाब है जी। बहुत बहुत दिली मुबारक़बाद कबूल करे जी।
Comment by Samar kabeer on July 25, 2017 at 9:46pm
जी,ये तो मेरा फ़र्ज़ है, शुक्रिया ।
Comment by Ravi Shukla on July 25, 2017 at 9:01pm
आदरणीय समर साहब हमारे अनुरोध पर आपने इतनी विस्तृत टिप्पणी दे कर जो मान दिया और गजल के पीछे की कहानी से अवगत कराया उसके लिए आपको बहुत-बहुत धन्यवाद। सादर
Comment by Samar kabeer on July 24, 2017 at 1:59pm
जनाब भाई विजय निकोर जी आदाब,ग़ज़ल आपको पसंद आई लिखना सार्थक हुआ,ग़ज़ल में शिर्कत और दाद-ओ-तहसीन के लिये आपका तहे दिल से शुक्रगुज़ार हूँ ।
Comment by vijay nikore on July 24, 2017 at 11:42am

वाह ! इतनी दिलकश गज़ल । आप से यही उमीद रहती है और आप इस उमीद को पूरा करते हैं।

आपको ढेरों बधाई, आदरणीय भाई समर कबीर जी।

Comment by Samar kabeer on July 21, 2017 at 11:13am
जनाब महेन्द्र कुमार जी आदाब,ग़ज़ल में शिर्कत और दाद-ओ-तहसीन के लिये आपका तहे दिल से शुक्रगुज़ार हूँ ।
Comment by Samar kabeer on July 21, 2017 at 11:11am
जनाब रवि शुक्ला जी आदाब,इस ग़ज़ल में भी वही क़वाफ़ी आये हैं जो पिछली ग़ज़ल में भी थे ।
ये ग़ज़ल किसलिये हुई,ये कहानी भी सुन लीजिये,यहाँ मेरे एक शाइर दोस्त हैं उन्होंने इस जमीन में ग़ज़ल कहकर मुझसे फ़रमाइश कि के मैं भी इसमें ग़ज़ल कहूँ, उनकी ग़ज़ल आठ अशआर पर मबनी थी,और सामने के सभी क़ाफिये वो इस्तेमाल कर चुके थे,जैसे 'मज़ीद, ईद, दीद, हमीद,वग़ैरा मेरे लिए उनकी फ़रमाइश पूरी करना एक चैलेन्ज बन गया और मैंने ये ग़ज़ल उन्हें सुनाई और उनसे कहा कि मैंने आपके किसी भी क़ाफिये को छुए बग़ैर अपनी ग़ज़ल कही है,उन्होंने भी कहा कि ये ज़मीन वैसे भी दुश्वार थी आपने अपने तईं इसे और दुश्वार कर लिया और बहतरीन ग़ज़ल कही, ये ग़ज़ल जब मेरे एक शागिर्द सुभाष सोनी ने सुनी तो उन्होंने 27 साल पहले कहा हुआ मेरा एक मतला सुनाया :-
'ये काम आज के अह्ल-ए-जदीद करते हैं
ग़ज़ल के मुंह पे तमांचा रसीद करते हैं'
और सोनी जी ने फ़रमाइश करके वो ग़ज़ल मुझसे कहलवाई जो पटल पर पहले आ गई ।
ग़ज़ल में शिर्कत और सुख़न नवाज़ी के लिये आपका तहे दिल से शुक्रगुज़ार हूँ ।
Comment by Mahendra Kumar on July 20, 2017 at 9:22pm

इसी जतन में लगे हैं हज़ारहा शाइर
अदब की मुल्क में मिट्टी पलीद कैसे हो ...वाह! कितनी ख़ूबसूरती से आपने प्रचलित मुहावरे को शेर में तब्दील किया है. शानदार!! काफ़िये मेरे लिए बिलकुल नए थे. बहुत कुछ सीखने को मिला. इस उम्दा ग़ज़ल के लिए ढेरों बधाई स्वीकार कीजिए आ. समर कबीर सर. सादर.

Comment by Ravi Shukla on July 17, 2017 at 7:56pm

आदरणीय समर साहब आदाब फिर से एक बहुत ही बेहतरीन ग़ज़ल पढ़ने को मिली मुबारकबाद पेश करते हैं इसके लिए ।कुछ ऐसी ग़ज़ल कुछ दिन पहले आपने कही थी इन्ही कवाफ़ी के साथ उस पर हुई चर्चाओं से हमे लगा कि यह ग़ज़ल आई है। अशआर में अपनी बात कहने का आपका अंदाज बहुत ही निराला है एक बार फिर से इस ग़ज़ल के अशआर पर दिली मुबारकबाद पेश करते हैं सादर

Comment by Samar kabeer on July 17, 2017 at 6:37pm
जनाब सौरभ पाण्डेय साहिब आदाब,बहुत दिनों बाद आपकी प्रतिक्रया पाकर बेहद ख़ुशी हुई,ग़ज़ल में शिर्कत और सुख़न नवाज़ी के लिये आपका तहे दिल से शुक्रगुज़ार हूँ ।

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