“बेटा एक बात कहूं क्या?”
“हाँ बोल न माँ, पर अपनी बहू के बारे में नहीं।“
माँ चुप हो गयी, फिर बोली “बेटा, अपने से जुड़े हुए लोगों का महत्व समझना चाहिये, हमे देखना चाहिये की वो हमसे कितना प्यार करते हैं, हमे भी उनको उतना ही स्नेह और महत्व देना चाहिये, कभी-कभी हम अपने से स्नेह करने वालों से, चाहे वो कोई भी क्यों न हों, इस तरह का व्यवहार करने लग जाते हैं, जैसे ‘घर की मुर्गी दाल बराबर’ ।“
बेटा हो सकता है वो आपको, आपके इस तरह के उपेक्षापूर्ण व्यवहार के बाद भी चुपचाप सहते रहतें हों, पर अंतत: इस अवस्था में वो आपके साथ से थक जायेंगें और आपको पता भी नहीं चलेगा की कब वो आपकी जिंदगी से .........!
इतना सुनते ही मनोज की आँखों के सामने अतीत के कुछ मारपीट, विवाद के दृश्य आ गए, आँखों में आँसू लिए वो चुपचाप नीचे उतरा और अपनी कार स्टार्ट करने लगा ।
खर्र-खर्र की आवाज सुनकर ‘माँ’ ने जोर से आवाज लगाकर पूछा, “बेटा कहाँ जा रहे हो इतनी रात को ?”
मनोज ने बहुत ही रूंधी हुई आवाज़ से कहा, “सीमा के घर, उसको वापस लाने ।“
"मौलिक व अप्रकाशित"
© हरि प्रकाश दुबे
Comment
आप तो स्वंय बहुत अच्छा लिखते है आदरणीय Sheikh Shahzad Usmani साहब , रचना पर आपके समर्थन के लिए आपका कोटिश: धन्यवाद ! सादर
आदरणीय Samar kabeer साहब, रचना पर आपके समर्थन से उत्साहवर्धन होता है ,हालांकि आजकल कार्य क्षेत्र में स्थानांतरण की वजह से वक्त पर प्रत्युत्तर नहीं दे पा रहा हूँ ,जल्द ही चीजें सामान्य हो जायेंगी , अपना स्नेह बनाए रखियेगा ! आपका हार्दिक आभार ! सादर
आदरणीय Mohammed Arif साहब दिल से शुक्रिया आपका ! सादर
आदरणीया pratibha pande जी, आपका हार्दिक धन्यवाद , सच है माँ का संवाद कुछ अधिक लंबा हो गया है, पर यह कथा भी बस भावना में ही लिखी गयी, छोटा हो सकता था पर कुछ अधूरी सी बात हो जाती ,एक बिगडैल लड़के क लिए जरूरी भी लग रहा था ,इसीलिए ! सादर
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