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रूंधी हुई आवाज़ : लघुकथा : हरि प्रकाश दुबे

 

“बेटा एक बात कहूं क्या?”

 

“हाँ बोल न माँ, पर अपनी बहू के बारे में नहीं।“   

 

माँ चुप हो गयी, फिर बोली “बेटा, अपने से जुड़े हुए लोगों का महत्व समझना चाहिये, हमे देखना चाहिये की वो हमसे कितना प्यार करते हैं, हमे भी उनको उतना ही स्नेह और महत्व देना चाहिये, कभी-कभी हम अपने से स्नेह करने वालों से, चाहे वो कोई भी क्यों न हों, इस तरह का व्यवहार करने लग जाते हैं, जैसे ‘घर की मुर्गी दाल बराबर’ ।“

बेटा हो सकता है वो आपको, आपके इस तरह के उपेक्षापूर्ण व्यवहार के बाद भी चुपचाप सहते रहतें हों, पर अंतत: इस अवस्था में वो आपके साथ से थक जायेंगें और आपको पता भी नहीं चलेगा की कब वो आपकी जिंदगी से .........!

 

इतना सुनते ही मनोज की आँखों के सामने अतीत के कुछ मारपीट, विवाद के दृश्य आ गए, आँखों में आँसू लिए वो चुपचाप नीचे उतरा और अपनी कार स्टार्ट करने लगा ।   

 

खर्र-खर्र की आवाज सुनकर ‘माँ’ ने जोर से आवाज लगाकर पूछा, “बेटा कहाँ जा रहे हो इतनी रात को ?”

 

मनोज ने बहुत ही रूंधी हुई आवाज़ से कहा, “सीमा के घर, उसको वापस लाने ।“ 

 

"मौलिक व अप्रकाशित"

© हरि प्रकाश दुबे

 

 

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Comment by नाथ सोनांचली on August 4, 2017 at 4:57am
आदरणीय हरिप्रकाश दुबे जी सादर प्रणाम, बहुत ही अच्छे कथानक को चुना आपने । माँ आखिर माँ होती है । वह कभी नहीं चाहती की घर टूटे । वह हर परिस्थिति में परिवार को बचाने का प्रयास करती है ।अच्छी लघु कथा ।बधाई स्वीकार कीजिये
Comment by Hari Prakash Dubey on August 3, 2017 at 6:26am

आप तो  स्वंय बहुत अच्छा लिखते  है आदरणीय  Sheikh Shahzad Usmani  साहब , रचना पर आपके समर्थन के लिए आपका कोटिश: धन्यवाद ! सादर 

Comment by Hari Prakash Dubey on August 3, 2017 at 6:24am

आदरणीय  Samar kabeer साहब, रचना पर आपके समर्थन से उत्साहवर्धन होता है ,हालांकि आजकल कार्य क्षेत्र में स्थानांतरण की वजह से   वक्त पर प्रत्युत्तर नहीं दे पा रहा हूँ ,जल्द ही चीजें सामान्य  हो  जायेंगी , अपना स्नेह बनाए रखियेगा !   आपका हार्दिक आभार !  सादर  

Comment by Hari Prakash Dubey on August 3, 2017 at 6:14am

आदरणीय  Mohammed Arif  साहब दिल से शुक्रिया आपका ! सादर 

Comment by Hari Prakash Dubey on August 3, 2017 at 6:12am

आदरणीया pratibha pande जी, आपका हार्दिक धन्यवाद , सच है माँ का संवाद कुछ अधिक लंबा हो गया है, पर यह कथा भी बस भावना में ही लिखी गयी, छोटा हो सकता था पर कुछ अधूरी सी बात हो जाती ,एक बिगडैल लड़के क लिए जरूरी भी लग रहा था ,इसीलिए ! सादर 

Comment by Sheikh Shahzad Usmani on August 2, 2017 at 8:15pm
बहुत बढ़िया अनुपम भावपूर्ण रचना के लिए सादर हार्दिक बधाई आदरणीय हरि प्रकाश दुबे जी।
Comment by Samar kabeer on August 2, 2017 at 3:45pm
जनाब हरि प्रकाश दुबे जी आदाब,अच्छी लगी आपकी लघुकथा,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
Comment by Mohammed Arif on August 2, 2017 at 2:56pm
आदरणीय हरिप्रकाश दुबे जी आदाब, बहुत ही अच्छे कथानक को चुना आपने । माँ आखिर माँ होती है । वह कभी नहीं चाहती की घर टूटे । वह हर हाल में परिवार को बचाने का प्रयास करती है । संदेशपरक कथा ।बधाई स्वीकार करें ।
Comment by pratibha pande on August 2, 2017 at 8:46am
रिश्तों की संवेदनशीलता पर बुनी भावपूर्ण रचना, हार्दिक बधाई आदरणीय हरि प्रकाश दुबे जी। लघुकथा शिल्प के अनुसार माँ का संवाद कुछ अधिक लंबा हो गया है।

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