"बेटा !बात हमारी गैरहाजिरी में उसे घर लाने की है।"
"तो मैं क्या करती अम्मी?आप ही बताएं ।उसे इस हाल में छोड़ा जा सकता था क्या?शुभम और रोहित से बोला था मैनें इसे एक दिन के लिए अपने घर पर रख लें, लेकिन उनके पास भी अपनी वाजिब वजहें थीं"
"ये सब मैं नहीं जानती शमा!तुम्हारे अब्बू को जब पता लगेगा की हमारी गैरहाजिरी में तुमने... "
"तो क्या गलत किया अम्मी?"
वह माँ की बात बीच में काट कर बोली।
"एक भी दिन का नागा ना करने वाला लड़का, चार दिन से ना स्कूल आया ना ट्यूशन।तब कहीं जाकर हम उसके रूम पर गए ।वहां जाकर देखा बेहोश पड़ा था।डॉक्टर ने मलेरिया बताया।चार दिन हो गए ढंग से उसने कुछ खाया नहीं । यहाँ इसका कोई है नहीं ,अब भी आपको लगता है मैनें गलत किया ?"
"चल एक बार को मैं तेरी बात समझ भी जाऊँ, लेकिन तेरे अब्बू समझने वाले हैं क्या?और ये कब तक रहेगा यहाँ?"
"अरे तो एसटीडी से इसके घर वालों को इत्तला दे दी है ना ,वे लोग आते होंगे।रही बात अब्बू की, तो उन्हें जबाब मिल जाएगा"
अब तक शान्ति से जबाब देती आ रही शमा का लहज़ा यहाँ थोड़ा तल्ख़ सा हो गया।
"अच्छा तो तू अब उन से भी जुबान दराज़ी करेगी?"
"जरूरत ही नहीं पड़ेगी । कह कर वह दनदनाती बाहर निकल गयी।
थोड़ी ही देर में संदेश के घर वाले हैरान परेशान से शमा के घर पहुँच गए।और पीछे से शमा भी।
"बिटिया का किन शब्दों में धन्यवाद करें बहन जी! इकलौता लड़का है हमारा ।पढ़ाई की वजह से यहां अकेला रह रहा है।अगर वक़्त पर बिटिया सुध ना लेती तो जाने क्या होता?" संदेश के पिता कृतज्ञ भाव से बोले।हमीदा बेग़म को समझ नहीं आ रहा था क्या प्रतिक्रिया दें।
तभी शमा के अब्बू भी आ गए।थोड़ी देर में सारे हालात उनके भी सामने थे।
"भाईसाहब !बड़ा अहसान किया आपकी बच्ची ने हमपर।"
"अंकल!अहसान कह कर शर्मिंदा ना करें ।क्या मैं आपकी बेटी जैसी नहीं ?अगर नहीं, तो बना लीजिए। वैसे भी मेरा कोई भाई नहीं है ।और आज रक्षाबंधन है। "उसने मुठ्ठी में बंद राखी को सामने रख, हाथ की लकीरों में भाई की लकीर खींचते हुए कहा।
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय राहिला जी, आपकी लघुकथा पढ़़ी बल्िक दो तीन दफा पढ़ी और इस नतीजे पर पहुंचा कि इस लघुकथा के पीछे पहले से ही तय किया अंत था। 'बंद मुट्ठी में बंद राखी को सामने रख,' कथ्य के आस पास सारा ताना-बाना बुना गया है। लघुकथा सहजता से अंत तक नहीं पहुंची बल्िक उसे उस अंत तक जबरन सा पहुंचाया गया है । अब देखिए 23 पंक्ितयों की इस लघुकथा में लगभग पहली 15 पंक्ितयों में अब्बू को हौव्वा बना पेश किया गया पर अंत तक पहुंचते उसकी किसी प्रतिक्रिया का जिक्र तक नहीं किया गया है। मॉं-बेटी के संवादों में अब्बू के गुस्से का इतना जिक्र है कि कौतुहलता बनती है कि क्या होगा? अब्बू का रिएक्शन क्या होगा? अंत में फुस्स गुब्बारे सा अंत निराश कर गया। इस लघुकथा से मुझे काफी निराशा हुई है। 'नई लकीर' शीर्षक भी तभी सार्थक होता जब अब्बू मियॉं लीक से हटकर कुछ करते । आशा है भविष्य में आपसे 'राहिला' वाली कथाएं मिलेंगी जिसके लिए हम सभी इंतज़ार करते हैं । सादर
आदरणीया राहिला जी बहुत ही सुंदर,सार्थक और मार्मिक लघु कथा की प्रस्तुति दी है आपने। दिल बधाई स्वीकारें।
आ. राहिला जी, बहुत ही बढ़िया लघुकथा प्रस्तुत की है आपने. शीर्षक आकर्षक भी है और प्रभावी भी. मेरी तरफ़ से दिल से बधाई स्वीकार कीजिए. सादर.
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