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आएं न आएं वो लेकिन हम आस लगाए .बैठे हैं
दिन ढलते ही शमए मुहब्बत घर में जलाए बैठे हैं
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अपनी ख़ामोशी में वो सब राज़ छुपाये बैठे हैं
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हैरत है जो प्यार मुहब्बत से ना वाकिफ़ हैं यारो
वह इल्ज़ाम दग़ाबाज़ी का मुझ पे लगाए बैठे हैं
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कौन है अपना कौन पराया कैसे पहचाने कोई
चहरों पर तो फ़र्ज़ी चहरे लोग सजाए बैठे हैं
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परदेसी और बेगानों की बात करें आख़िर कैसे
हम तो अपनों से ही कितने धोके खाए बैठे हैं
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मुझको ये उम्मीद नहीं थी जाएंगे इक रोज़ बदल
जिनके प्यार में हम अपना घरबार लुटाए बैठे हैं
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"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
आदरणीय सलीम भाई , बढ़िया गज़ल कही है , शेर दर देश मुबारक बाद पेश है . कुबूल कीजिये ।
आ. सलीम साहब,
अच्छी ग़ज़ल हुई है ..
बधाई
आली जनाब तस्दीक़ अहमद साहब,
आपकी नज़रे इनायत के लिए बहुत बहुत शुक्रिया, आपकी मुहब्बत सलामत रहे ,
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