काफिया : आएँ , रदीफ़: क्या
२१२२ २१२२ २१२
पाक आतंकी कभी बाज़ आएँ क्या
बारहा दुश्मन से’ धोखा खाएँ क्या ?
गोलियाँ खाते ज़माने हो गये
राइफल बन्दुक से’ हम घबराएँ क्या ?
जान न्योछावर शहीदों ने की’ जब
सरहदों को हम मिटाते जाएँ क्या ?
सर्जिकल तो फिल्म की झलकी ही’ थी
फिल्म पूरा अब मियाँ दिखलाएँ क्या ?
आपका विश्वास अब मुझ पर नहीं
अनकही बातें जो’ हैं बतलाएँ क्या ?
खो दिया है सब्र जिसने बेवज़ह
बेसब्री को और हम भड़काएँ क्या ?
बेवज़ह करता अदावत मसखरा
ना समझ को और हम समझाएँ क्या ?
बोलते हैं झूठ हरदम रहनुमा
झूठ का बाज़ार है झुठलायें क्या ?
बावफा नादान है, गलती की’ है
बज़्म में ‘काली’ अभी बुलवाएँ क्या ?
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आ. मण्डल जी,
अच्छा प्रयास हुआ है..समर सर कह ही चुके हैं...
मेरी दिक्कत शीर्षक को लेकर है ..
पाक आतंकी कभी बाज़ आएँ क्या..
ये शब्द पाक आतंकी वर्तमान मीडिया ने हमारे मुँह में ठूँस दिया है... पाकिस्तानी आतंकी को पाक (पवित्र) आतंकी बना दिया है.
आतंकी कहीं के भी हो, किसी भी मुल्क, मज़हब के हों.. नापाक ही रहेंगे अत: एक ग़ज़लकार के रूप में ऐसे भ्रांतिपूर्ण शब्दों से बचना चाहिए..
सादर
आदरणीय समर कबीर साहिब सादर आदाब , आपकी नज़र से बच नहीं पाई बात | आपने सही कहा यह ग़ालिब की जमीन पर लिखी गई है |आज कल मैं ग़ालिब की गजलों का अध्ययन कर रहा हूँ | उसके आधार पर जो कुछ बनता है लिखने की कोशिश करता हूँ | लेकिन ग़ालिब की रचना में भी, ओ बी ओ में प्रकाशित नियमो के मुताबिक़ कई दोष नज़र आये | इसके बारे में आपसे परामर्श बाद में किसी दिन करेंगे | फिलहाल अपने जो विन्दुवत टिप्पणी और सलाह दी , उसके लिए आपका सादर आभार | वास्तव में मैं ऐसा ही टिप्पणी चाहता हूँ जिससे कुछ सिखने के लिए मिले| रचना को समय देने के लिए सादर आभार |
बहुत अच्छी ग़ज़ल | बधाई आदरणीय |
आदरणीय काली प्रसाद जी वर्तमान में घटित घटनाओं का बढ़िया जिक्र है इस ग़ज़ल में इस रचना के लिए हार्दिक बधाई सादर
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