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फिर जगी आस तो चाह भी खिल उठी
मन पुलकने लगा नगमगी खिल उठी
दीप-लड़ियाँ चमकने लगीं, सुर सधे..
ये धरा क्या सजी, ज़िन्दग़ी खिल उठी
लौट आया शरद जान कर रात को
गुदगुदी-सी हुई, झुरझुरी खिल उठी
उनकी यादों पगी आँखें झुकती गयीं
किन्तु आँखो में उमगी नमी खिल उठी
है मुआ ढीठ भी.. बेतकल्लुफ़ पवन..
सोचती-सोचती ओढ़नी खिल उठी
चाहे आँखों लगी.. आग तो आग है..
है मगर प्यार की, हर घड़ी खिल उठी
फिर से रोचक लगी है कहानी मुझे
मुझमें किरदार की जीवनी खिल उठी
नौनिहालों की आँखों के सपने लिये
बाप इक जुट गया, दुपहरी खिल उठी
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-सौरभ
Comment
आदरणीया वन्दना जी, एक अरसे बाद जहाँ मैं मंच पर अपनी कोई रचना अपलोड कर रहा हूँ, आपको भी एक अरसे बाद देख रहा हूँ.
रचना पर आपसे मिला अनुमोदन तोषदायी है. हार्दिक धन्यवाद
आदरणीय अजय तिवारी जी, आपका सादर धन्यवाद
जय-जय
आदरणीय योगराज भाईजी, आपने इस सहज से अभ्यास को क्या छुआ, गोया ये मुझे ही अब आँखें दिखाता हुआ कह रहा है, कि, मुझे लेकर नाहक ही पेशोपेश में थे सौरभ पाण्डेय ! देख, जौहरी से सनद मिल गयी !!
और क्या कहूँ ?
उसपर से आपने इसे फ़ीचर के ख़ाने में भी सजा दिया है.
जय हो..
हुज़ूर, जबकि यह भी मालूम है, कि मंच-प्रबन्धन के सदस्यों की रचनाएँ आसानी से फ़ीचर नहीं हुआ करतीं. अकसर नहीं ही होतीं !
अब इस रचना को थोड़ी इज़्ज़त से देखने लगा हूँ. .. :-)))
सादर धन्यवाद, आदरणीय..
बहुत ही बेहतरीन ग़ज़ल के लिए बहुत बहुत बधाई आदरणीय सौरभ सर
आदरणीय सौरभ जी,
एक बेहद आकर्षक ग़ज़ल के लिए शुभकामनाएं .
और दाद आदरणीय योगराज जी की टिप्पणी को भी ऐसे गुणग्राहक कम मिलते हैं.
सादर
//फिर जगी आस तो चाह भी खिल उठी
मन पुलकने लगा नगमगी खिल उठी // इसे कहते हैं जिंदा शेअर, क्या मतला है साहिब. वाकई आस और चाह का चोली दामन का रिश्ता है.
//दीप-लड़ियाँ चमकने लगीं, सुर सधे..
ये धरा क्या सजी, ज़िन्दग़ी खिल उठी // दीपावली से पहले ही दीपावली के दीदार करवा दिए इस शेअर में, वाह वाह! क्या मंज़रकशी है, आफरीन.
//लौट आया शरद जान कर रात को
गुदगुदी-सी हुई, झुरझुरी खिल उठी // क्या कहने हैं, वाह!!
//उनकी यादों पगी आँखें झुकती गयीं
किन्तु आँखो में उमगी नमी खिल उठी // आँखों का झुकना और और झुकी आँखों का नम होना, क्या तख़य्युल है, लाजवाब.
//है मुआ ढीठ भी.. बेतकल्लुफ़ पवन..
सोचती-सोचती ओढ़नी खिल उठी // अहा हा हा हा! "मुआ" शब्द का जवाब नहीं ज़िल्ले सुभानी.
//चाहे आँखों लगी.. आग तो आग है..
है मगर प्यार की, हर घड़ी खिल उठी // बहुत खूब.
//फिर से रोचक लगी है कहानी मुझे
मुझमें किरदार की जीवनी खिल उठी // हुज़ूर एक पूरा फलसफा कह डाला दो मिसरों में. जब एक पढने वाला किसी किरदार को जीने लगे तो समझें कि रचना कालजयी हो गई.
//नौनिहालों की आँखों के सपने लिये
बाप इक जुट गया, दुपहरी खिल उठी// भाव के लिहाज़ से यह हासिल-ए-ग़ज़ल शेअर है आदरणीय, इस हेतु एक्स्ट्रा वाह वाह. इस शेअर ने मुझे महान सिन्धी/सराइकी शायर शाकिर शुजाबादी के एक शेअर की याद दिलवा दी:
आदरणीय समर साहब ने पवन के किस्से को कुछ ऐसे सुनाया है कि अब इस पढ़ लेने के बाद शायद ही कोई पवन की संज्ञा को लेकर भ्रम में रहेगा. :-))))
जय हो..
भाई दिनेश जी, आपने जिस न प्रहारक ढंग से चर्चा को उठाया कि आदरणीय टिप्पणीकार घबरा गया... :-))))) ...
हा हा हा हा..............
भाई, पवन पुरवैया या पवन पुरवाई स्त्रीलिंग ही है. यहाँ पुरवाई या पुरवैया की संज्ञा प्रभावी है. न कि पवन की.
:-))
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