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वो जितना गिरता है उतना ही कोई गिर जाये तो
उसकी ही भाषा में उसको सच कोई समझाये तो
सूरज से कहना, मत निकले या बदली में छिप जाये
जुगनू जल के अर्थ उजाले का सबको समझाये तो
मैं मानूँगा ईद, दीवाली, और मना लूँ होली भी
ग़लती करके यार मेरा इक दिन ख़ुद पे शरमाये तो
तेरी ख़ातिर ख़ामोशी की मैं तो क़समें खा लूँ, पर
कोई सियासी ओछी बातों से मुझको उकसाये तो
कहा तुम्हारा मैनें माना, जंग नहीं है हल, लेकिन
"पहले ये बतला दो उस ने छुप कर तीर चलाए तो
ॐ शाँति का मंत्र पाठ कर हमनें तो मन साध लिया
पाकी सेना, साथ मुज़ाहिद, सीमा पर आ जाये तो
सूरज तो निकलेगा तय है साथ लिये किरणें, कल भी
लेकिन आज़ादी की चाहत बदली बन छा जाये तो
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
आदरणीय काली पद भाई . आपका हार्दिक आभार ।
आदरणीय ब्र्जेश भाई , गज़ल पर उपस्थिति और सराहना के लिये हार्दिक आभार आपका ।
आदरणीय आशुतोष भाई , हौसला अफज़ाई का शुक्रिया आपका ।
आदरणीय गिरिराज जी,
बहरुल फ़साहत के लिए दी गयी लिंक काम नहीं कर रही. नयी लिंक ये है :
http://urducouncil.nic.in/ebookNew/0041-%20Bahr-ul-fasahat,%20Vol.1.
सादर
आदरणीय समर साहब, आदाब,
बहरे मीर के बारे में काफी अनिश्चितता है. खुद फ़ारूकी साहब इसे हिंदी बहर नहीं मानते. इस पर कल तक एक आलेख पेश करने की कोशिश करूंगा.
सादर
आदरणीय अफरोज साहब,
मैं कोशिश करूंगा की जल्द ही एक आलेख प्रस्तुत करूं. जिससे जो संशय है वो शायद ख़त्म हो सके.
सादर
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