1222 1222 1222 1222
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जिधर देखो उधर मिहनत कशों की ऐसी हालत है-
ग़रीबों की जमा अत पर अमीरों की क़यादत है
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मुक़द्दर ले के आया है न जाने कैसी बस्ती में-
नज़र आती नहीं मुझको किसी के दिल में चाहत है
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कहीं दहशत कहीं अस्मत फरोशी है कहीं नफ़रत-
ज़माने में जिधर देखो क़ियामत ही क़ियामत है
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ग़रीबों के घरों में रहबरों देखो कभी जा कर-
वहां खुशियां नहीं हैं सिर्फ फ़ाक़ा और गुरबत है
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न जाने किस शनावर के मुक़द्दर में लिखा मोती-
समुन्दर में भला मालूम किस को कितनी दौलत है
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रज़ा जो मिल नहीं पाया न कर उसका कोई शिकवा-
ये क्या कम है तुझे शुहरत मिली उसकी बदौलत है
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"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
"जनाब froz 'sahr' साहब ,
ग़ज़ल में आपकी शिरक़त और हौसला अफ़जाई के लिए बहुत बहुत शुक्रिया।"
आली जनाब समर साहब,
आपकी ग़ज़ल पर नज़रे इनायत के लिए शुक्रिया,
आपकी मशविरे की तरफ़ मुखातिब होते हैं,
..
1..जनाब ये आपकी बात एकदम सही है शोहरत, मेहनत नहीं इसे मिहनत, शुहरत लिखते हैं ,
दोनों अरबी के अल्फाज़ है.
और अरबी में इसे मिहनत, शुहरत ही लिखते हैं आपकी ये बात तस्लीम है
2..पर सर जहाँ तक हमें मालूम है कोई भी शायर अपने ग़ज़ल में सिर्फ़ शोहरत,मेहनत का ही इसत्माल करते हैं
क्यूंकि ये अल्फाज़ ही आम हैं,
जनाब हमने शुहरत, मिहनत का इस्तेमाल ग़ज़ल में कहीं नहीं पढ़ा इसलिए जानते हुए भी हम लिख न सके इसके लिए माफ़ी चाहता हूँ
3. चूँकि हमे दोनों अल्फाज़ पता थे इसलिए हमने दोनों अल्फाज़ को 22 के वज़न में ही बांधा है.अगर ऐसा ही लिखा रहने दें तो ...
आपकी महब्बत और मशविरे का तलबगार..
जनाब आशुतोष मिश्रा जी ,
ग़ज़ल में आपकी शिरक़त और हौसला अफ़जाई के लिए बहुत बहुत शुक्रिया।
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