गीत - मुखड़ा -
करे तमस को दूर दीप ही, दूर भागता अँधियारा |
दीप निभाये धर्म सदा ही, जलकर करता उजियारा ||
सूर्य किरण उठ भोर झाँकती, नित्य सदा ही खिड़की से
दीन करे विश्राम डरे बिन, सदा मेघ की घुड़की से ।।
दीन-हीन के द्वार जहाँ भी, घिरने लगता अँधियारा
दीप निभाये धर्म सदा ही, जलकर करता उजियारा ।
दीप जलाएं द्वारें जाकर, छँटे दीन का अन्धेरा ।
सबको दे उजियार दीप ही,पर खुद का नही सवेरा ।।
दुख दर्दों की मार झेलता, दीन हीन सा दुखियारा
दीप निभाये धर्म सदा ही,जलकर करता उजियारा ।।
हुआ तिमिर हैरान युद्ध में, जय द्रथ को जब मौत मिली
धूप छाँव का खेल हुआ जब,अँधियारा क्यों बना छली |
दीपक अपना कर्म मानता,करना जग में उजियारा ।।
दीप निभाये धर्म सदा ही, जलकर करता उजियारा ।|
कटे तमस की रात जहाँ भी, घर भर में खुशियाँ छायें |
विकसित होगा देश शीघ्र ही, हम सबको ये आशायें ||
नहीं रौशनी जब तक होती, हँसता रहता अँधियारा |
दीप निभाये धर्म सदा ही, जलकर करता उजियारा ।|
(मौलिक व अप्रकाशित)
- लक्ष्मण रामानुज लडीवाला
Comment
प्रस्तुत गीत रचना का मुखड़ा और पूरक पंक्तियाँ कुकुभ छंद में (जिस्समे यति 22 मात्र भार में अनिवार्य होती है) और अंतरे लावणी छंद आधारित है जिसमे मात्रा भार १-2 या 22 दोनों हो सकते है | सादर आभार स्वीकारे |
भाव पक्ष सराहने के लिए हार्दिक आभार आपका डॉ. गोपाल नारायण जी, मुखड़ा और पूरक पंकियां 16-14 के अंतर्गत कुकुभ छंद में और अंतरे लावनी छंद में रचित है | सादर
बहुत बहुत आभार आपका श्री मोहम्मद आरिफ साहब |
गीत पर सापेक्ष प्रतिक्रया के लिए हार्दिक आभार आपका श्री सुशील सरना जी |
आ० आपकी शुरुआत ककुभ छंद [ १६ १४ ] अंत में दो गुरु से हुयी पर पूर गीत में यह विन्यास कायम नहीं रह पाया . शिल्प के सापेक्ष भाव को सराहनीय कहा जाएगा . सादर .
एक सुंदर और भावपूर्ण तथा संदेशप्रद गीत ... हार्दिक बधाई आदरणीय लाड़ीवाला जी।
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