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गीत - मुखड़ा -
करे तमस को दूर दीप ही, दूर भागता अँधियारा |
दीप निभाये धर्म सदा ही, जलकर करता उजियारा ||

सूर्य किरण उठ भोर झाँकती, नित्य सदा ही खिड़की से
दीन करे विश्राम डरे बिन, सदा मेघ की घुड़की से ।।

दीन-हीन के द्वार जहाँ भी, घिरने लगता अँधियारा
दीप निभाये धर्म सदा ही, जलकर करता उजियारा ।

दीप जलाएं द्वारें जाकर, छँटे दीन का अन्धेरा ।
सबको दे उजियार दीप ही,पर खुद का नही सवेरा ।।

दुख दर्दों की मार झेलता, दीन हीन सा दुखियारा 
दीप निभाये धर्म सदा ही,जलकर करता उजियारा ।।

हुआ तिमिर हैरान युद्ध में, जय द्रथ को जब मौत मिली
धूप छाँव का खेल हुआ जब,अँधियारा क्यों बना छली |

दीपक अपना कर्म मानता,करना जग में उजियारा ।।
दीप निभाये धर्म सदा ही, जलकर करता उजियारा ।|

कटे तमस की रात जहाँ भी, घर भर में खुशियाँ छायें |
विकसित होगा देश शीघ्र ही, हम सबको ये आशायें ||
नहीं रौशनी जब तक होती, हँसता रहता अँधियारा |
दीप निभाये धर्म सदा ही, जलकर करता उजियारा ।|

(मौलिक व अप्रकाशित)

- लक्ष्मण रामानुज लडीवाला

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Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on November 8, 2017 at 4:04pm

प्रस्तुत गीत रचना का मुखड़ा और पूरक पंक्तियाँ कुकुभ छंद में (जिस्समे यति 22 मात्र भार में अनिवार्य होती है) और अंतरे लावणी छंद आधारित है जिसमे मात्रा भार १-2 या 22 दोनों हो सकते है | सादर आभार स्वीकारे |

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on November 8, 2017 at 3:59pm

भाव पक्ष सराहने के लिए हार्दिक आभार आपका डॉ. गोपाल नारायण जी, मुखड़ा और पूरक पंकियां 16-14 के अंतर्गत कुकुभ छंद में और अंतरे लावनी छंद में रचित है | सादर 

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on November 8, 2017 at 3:51pm

बहुत बहुत आभार आपका श्री मोहम्मद आरिफ साहब |

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on November 8, 2017 at 3:28pm

गीत पर सापेक्ष प्रतिक्रया के लिए हार्दिक आभार आपका श्री सुशील सरना जी |

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on November 6, 2017 at 8:42pm
सुन्दर गीत रचना आदरणीय..
Comment by Samar kabeer on November 5, 2017 at 8:50pm
जनाब लक्ष्मण रामानुज जी आदाब,गीत का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।
जनाब गोपाल नारायण जी की बातों का संज्ञान लें ।
Comment by Mohammed Arif on November 5, 2017 at 7:44am
आदरणीय लक्ष्मण रामानुज जु आदाब, बहुत ही सुंदर गीत की पेशकश । हार्दिक बधाई स्वीकार करें ।
Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on November 4, 2017 at 7:01pm

आ० आपकी शुरुआत ककुभ छंद [ १६ १४ ]  अंत  में दो गुरु से हुयी पर पूर गीत में यह विन्यास कायम नहीं रह पाया . शिल्प के सापेक्ष भाव को सराहनीय कहा जाएगा .  सादर .

Comment by Sushil Sarna on November 3, 2017 at 8:06pm

एक सुंदर और भावपूर्ण तथा संदेशप्रद गीत  ... हार्दिक बधाई आदरणीय लाड़ीवाला जी। 

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