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उसकी सूरत नई नई देखो ।
तिश्नगी फिर जगा गई देखो।।
उड़ रही हैं सियाह जुल्फें अब ।
कोई ताज़ा हवा चली देखो ।।
बिजलियाँ वो गिरा के मानेंगे ।
आज नज़रें झुकी झुकी देखो ।।
खींच लाई है आपको दर तक ।
आपकी आज बेखुदी देखो ।।
रात गुजरी है आपकी कैसी ।
सिलवटों से बयां हुई देखो ।।
डूब जाएं न वो समंदर में ।
क्या कहीं फिर लहर उठी देखो ।।
हट गया जब नकाब चेहरे से ।
पूरी बस्ती यहां जली देखो ।।
वो तसव्वुर में लिख रहा ग़ज़लें ।
याद आती है आशिकी देखो ।।
खत को पढ़कर जला दिया उसने ।
चोट दिल पर कहीं लगी देखो ।।
उसके दिल में धुंआ अभी तक है ।
आग अब तक नहीं बुझी देखो ।।
नवीन मणि त्रिपाठी
नवीन मणि त्रिपाठी
मौलिक अ प्रकाशित
Comment
आली जनाब मोहतरम समर कबीर साहब आदाब,
मुझे आपकी इस्लाह पर आना पड़ा । आने की वजह मिसरों की रब्त और रदीफ " शायद नई नई" है । आपने बहुत ही बेहतरीन तरीक़े से सुधार किया है , मज़ा आ गया ।
" उसकी सूरत नई नई देखो ,
तिश्नगी फिर जगा गई देखो ।" वाह! वाह!! क्या ख़ूब मिसरा बना है।
ओबीओ के मंच पर इसी तरह हम नये सीखने वालों पर नज़रे इनायत करते रहे । अल्लाह आपको लंबी और सेहतमंद उम्र अता करें ।
आ0 कबीर सर काफी हद तक स्थिति साफ हो गई । विशेष आभार के साथ नमन ।
आ0 मण्डल साहब कबीर सर की इस्लाह से ही मैं सन्तुष्ट होता हूँ । ग़ज़ल तक आने के लिए आभार ।
आ नवीन मणि जी अच्छी ग़ज़ल के लिए बधाई स्वीकार करे \ आ समर कबीर द्वारा दिया गया उदाहरण से मुझे भी नै जानकारी मिली |
4था,8वाँ, नवां और दसवां शैर रदीफ़ से पूरा पूरा इंसाफ़ कर रहे हैं ।
जनाब नवीन जी,ग़ज़ल में छाया वाद,प्रगतिवाद, हर काल(युग) को बराबर स्थान मिला है और मिलता रहेगा, रब्त को इस तरह समझें,सारी गड़बड़ रदीफ़ "शायद" शब्द की वजह से है, शायद का प्रयोग इसलिये किया जाता है कि जहाँ यक़ीन न हो सिर्फ़ शक हो,अब आपके मतले का ऊला मिसरा देखिये:-
'उसकी सूरत नई नई शायद'
इस मिसरे में शायद शब्द ये बता रहा है कि उसकी सूरत नई नई है लेकिन इसमें शक है कि न भी हो ।
अब दोनों मिसरों को मिलाकर देखते हैं:-
'उसकी सूरत नई नई शायद
तिश्नगी फिर जगा गई शायद'
सबसे पहले तो दोनों मिसरों में 'ई"की वजह से ईता दोष आ रहा है,दूसरी बात ,जब किसी को प्यास लगती है तो वो शक में नहीं होता और ये नहीं कहता कि शायद मुझे प्यास लग रही है,इसी मतले को रदीफ़ बदल कर देखें तो मतला साफ़ हो जाता है:-
'उसकी सूरत नई नई देखो
तिश्नगी फिर जगा गई देखो'
उम्मीद है आप समझ गए होंगे?
दूसरे शैर में भी हवा चल रही है ज़ुल्फ़ें उड़ रही हैं, और आप शायद कह रहे हैं,इसी तरह मेरे द्वारा इंगित मिसरों पर ग़ौर करें ।
आ0 कबीर सर सादर नमन
उसकी सूरत नई नई शायद ।
तिश्नगी फिर जगा गयी शायद ।
सर क्या ग़ज़लों में छायावाद को स्थान नही मिला है । सूरत और तिश्नगी में सम्बन्ध तो है सर । रब्त को थोड़ा और स्पष्ट करने की कृपा कीजिये । रब्त मैं समझना चाहता हूँ ।
सिलवटों से बयां का अर्थ तो आप समझ ही रहे होंगे सिलवटे देखकर ही लोगो ने समझा होगा कि रात कैसे गुजरी है ।
खींच लाई है आपको दर तक ......
मतलब होशो हवास में तो आते नहीं थे जब शायद होश नही है तभी यहां तक पहुचे ।
देखिये फिर लहर उठी शायद
सर शायर जो दिखाना चाह रहा है कि सम्भवतः लहर जैसा कुछ दिख रही है । बट कन्फर्म नहीं कि लहर ही हो यदि कन्फर्म होगा तो शायद क्यो लगाता ।
बिजलियाँ वो गिरा के मानेंगे
यहाँ विशुद्ध छाया वाद का प्रयोग है । शरमाई हुई आंखे शायर के दिल को सन्देश दे रहीं हैं अर्थात शायर का चयन हराम होगा ।
ऐसा मुझे लगा इसलिए आपकी गहन समीक्षा चाहता हूँ । क्षमा के साथ ।
आदरणीय नवीन मणि त्रिपाठी जी आदाब,
ग़ज़ल का बेहतर प्रयास । इस प्रयास पर आपको हार्दिक बधाई । आली जनाब मोहतरम समर कबीर साहब की इस्लाह का तत्काल प्रभाव से संज्ञान लें ।
इस खूबसूरत रचना की हार्दिक बधाई |
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