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दामन को तीरगी से बचाते चले गए
ईमाँ की रोशनी में नहाते चले गए
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हम दर-बदर की ठोकरे खाते चले गए
फिर भी तराने प्यार के गाते चले गए
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कोशिश तो की भंवर ने डुबोने की बारहा
हम कश्ती-ए-हयात बचाते चले गए
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रुसवाईयों के डर से कभी बज़्में नाज़ में
हंस-हंस के दिल का दर्द छुपाते चले गए
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अपना रहा ख़्याल न कुछ होश ही रहा
आँखों में उनकी हम तो समाते चले गए
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करता है जो सभी के मुक़द्दर का फ़ैसला
उसकी रज़ा की शम्अ जलाते चले गए
Comment
आदरणीय सलीम रज़ा साहब आदाब,
बहुत ही प्यारी और बेहतरीन अशआरों से सजी ग़ज़ल । हर शे'र उम्दा । दिली मुबारकबाद क़ुबूल करें ।
"क्या बात है ..... बहुत खूब ... बधाई आप को " |
जनाब सलीम रज़ा साहिब ,उम्दा ग़ज़ल हुई है ,मुबारकबाद क़ुबूल फरमायें
जनाब सलीम रज़ा साहिब आदाब,अच्छी ग़ज़ल हुई है,दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।
चौथे शैर के ऊला मिसरे में 'रुस्वाइओं' को "रुसवाइयों" कर लें ।
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