जनवरी की कड़ाके की ठंड। घना कोहरा। सुबह क़रीब पांच बजे का वक़्त। सरपट भागती ट्रेन की बोगी में सादी साड़ियां, पुराने से सादे स्वेटर और रबर की पुरानी से चप्पलें पहनी चार-पांच ग्रामीण महिलाओं की फुर्तीली गतिविधियां देख कर नज़दीक़ बैठा सहयात्री उनसे बातचीत करने लगा।
"ये चने की भाजी कहां ले जा रही हैं आप सब?"
"दिल्ली में बेचवे काजे, भैया!" एक महिला ने भाजी की खुली पोटली पर पानी के छींटे मारकर दोनों हाथों से भाजी पलटते हुए कहा।
"कहां से आईं हैं आप लोग?" सहयात्री ने उत्सुकता से पूछा।
"सागर से।"
"सागर में ही क्यों नहीं बेचतीं?"
"जहां पैदावार होत है, वहां के लोग खा-खा के उकता जात हैं। दिल्ली में पूरी भाजी अच्छे भाव में बिक जात है, भैया!" दूसरी महिला ने ठंड से कांपते हुए कहा।
"इतनी दूर, इतनी ठंड में! घर के मर्द क्यों नहीं जाते भाजी बेचने?" सहयात्री ने आश्चर्य से पूछा।
"मर्द को काम है खेत में काम करवो और तीज-त्योहारन पे सामान खरीदवो! घर के काम तो हम औरतन को करने पड़त हैं!"
"घर का काम? इतनी दूर बेचने जाना घर का काम?"
"हओ भैया, जो हमाओ घर को ई काम है, मरदन को काम नईं!" एक महिला ने कहा और फिर उन सभी चने की भाजी वालियों के हाथ फुर्ती से पोटलियां बांधने लगे। अगला स्टेशन आ गया था।
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
आद० शहजाद उस्मानी जी , बहुत अच्छी लघु कथा लिखी है बहुत बहुत बधाई आपको .आँखों के सामने रेल का ये द्रश्य सजीव सा हो उठा .
आद0 शहज़ाद शेख उस्मानी साहब सादर अभिवादन। लघुकथा पढ़ते समय मेरे भी ट्रेन में भाजी बेचने वाली महिलाओं का दृश्य उभर आया। बहुत बेतरीन। लेखक किस तरह अपने चारों ओर के छोटी छोटी चीजों से कहानी बनता है, आपसे सीखता हूँ। बधाई इस लघुकथा पर।
आदरणीय शेख शहज़ाद उस्मानी जी आदाब,
नारी घर के कामकाज के आलावा भी बाहर के कामकाज करती है इसमें कोई अचरज वाली बात कहाँ रही । शहर में कई नारियाँ हैं जो बाहर सर्विस करती है । उनको कोई कुछ नहीं कहता है । शहर में वह नारी सबलीकरण की प्रतीक बनी हुई है और अगर एक ग्रामीण नारी बाहर कामकाज के लिए निकलती तो उसे करूणा से देखते हैं आख़िर ऐसा क्यों ? सशक्त लघुकथा के लिए हार्दिक बधाई ।
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